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________________ *<>*<>>Z जैन गौरव-स्मृतियां >सार के समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखना, सब जीवों को आत्मतुल्य मना और विश्व बन्धुत्व की भावनाका विकास करना विधिरूप अहिंसा है । यह हिसा ही परम धर्म है । आचारांग सूत्र में कहा गया है: " सव्वेपारा, सव्वेभूया, सव्वेजीवा, सव्वेसत्ता न हंतव्वा, न अमात्रेयव्वा, न परिघेन्तव्वा, न उद्दवेयव्वा, एसधम्मे सुद्ध, धुवे, निइए, सासए, सम्मेच्च लोयं खेयन्नेहिं पवेइए ।" किसी प्राणी भूत, जीव और सत्व को नहीं मारना चाहिये, उस पर आज्ञा नहीं चलानी चाहिए, उसे बलात् आपने अधीन नहीं रखना चाहिए, उसे किसी तरह का क्लेश- परिताप और उपद्रव नहीं पहुँचाना चाहिए । यह अहिंसा धर्म ही शुद्ध है, ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और लोक के ज्ञाता अनुभवियों के द्वारा प्ररूपित है । यह आत्मा को उस स्थिति पर पहुँचा देता है जो इसका चरम साध्य है । वैसे तो संसार के प्रायः सब धर्मों ने न्यूनाधिक रूप में अहिंसा को स्वीकार किया है, परन्तु जैनधर्म ने अहिंसा पर जितना भार दिया है उतना और किसी धर्म ने नहीं । जैनधर्म की अहिंसा की व्याख्या जितनी व्यापक, उदार, विराट और विस्तृत है उतनी और किसी धर्म की नहीं । किसी २ धर्म के द्वारा सम्मत हिंसा तो केवल मनुष्य तक ही सीमित है, किसी धर्म की हिंसा अमुक २ पशुओं तक ही मर्यादित है, कोई धर्म अमुक २ बहाने से हिंसा का समर्थन भी करते हैं परन्तु जैनधर्म की अहिंसा न केवल मनुष्य या स्थूल पशु पक्षियों तक ही आबद्ध है अपितु उसमें पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के अव्यक्त चेतना वाले जीवों तक की हिंसा न करने पर भारपूर्वक विधान किया है। जैनधर्म की अहिंसा में किसी तरह का अपवाद नहीं है । उसकी दृष्टि में हिंसा, चाहे वह किसी भी निमित्त से की जाती हो क्षन्तव्य नहीं है । सूक्ष्म से सूक्ष्म जन्तुओं के प्रति भी अहिंसक रहने का जैनधर्म का मुख्य संदेश है । तात्पर्य यह है कि जैनधर्म ने हिंसा के सिद्धांत को व्यापक और विशाल रूप दिया है । जैनधर्म का प्राण और जैन संस्कृति का हृदय "अहिंसा" ही है । इसके आस पास ही अन्य सिद्धान्तों और आचार-विचारों का निरूपण किया *x*x*x*x*x*x*x<X>>X+X>XXX<÷(?2×) xexexexexexexXXXXX
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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