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________________ ५४२ श्रीदशवैकालिकसूत्रे कारणसे गिहत्यावि-गृहस्थ भी णं-उसे तारिसं-उस प्रकारका जाणंति= जानते हैं, (अतः उसका) पूयंति-वस्त्र पात्रादिसे सम्मान करते हैं, तथा साधु भी उसकी प्रशंसा करते हैं ॥४५॥ टीका-'आयरिए' इत्यादि । तादृशः उक्तगुणविशिष्टः साधुः आचार्यान् श्रमणाश्चाप्याराधयति-स्वकीयसंयमोत्कर्षणाऽऽचार्यादीन् प्रसादयतीत्यर्थः, येन हेतुना गृहस्थाः तं-साधुं तादृशं तथाविधं जानन्ति तेन कारणेन पूजयन्ति वस्त्रपात्रादिपुरस्कारेण मानयन्ति । 'अपि' शब्देन न केवलं गृहस्थाः किन्तु साधवोऽपि पूजयन्ति-प्रशंसन्तीति सूत्रार्थ ।।४५॥ मूलम् तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे य जे नरे । आयारभावतेणे य, कुबई देवकिविसं ॥४६॥ छाया-तपास्तेनो वचःस्तेनो, रूपस्तेनश्च यो नरः। . आचारभावस्तेनश्व, कुरुते देवकिल्लिपम् ॥४६॥ सान्वयार्थ:-जे जो नरे साधुतवतेणे-तपस्याका चोर-दूसरेकी तपस्याका अपनेमें आरोप करनेवाला, वयतेणे वचनका चोर-दूसरेके व्याख्यानका अपनेमें आरोप करनेवाला, य-तथा स्वतेणे-रूपका चोर दूसरेके रूपका अपनेमें आरोप करनेवाला, य-और आयारभावतेणे-आचारका चोर-दूसरेके ज्ञानादि आचारोंका अपनेमें आरोप करनेवाला, भावका चोर जीवादि पदार्थीका जानकार नहीं होने पर भी अपनेको जानकार बतानेवाला होता है, वह देवकिविसं= 'आयरिए' इत्यादि । ऐसे साधु आचार्योंकी तथा श्रमणोंकी आराधना करते हैं, अर्थात् आचार्यादिकोंको अपने संयमकी उत्कृष्टतासे प्रसन्न करते है, जिससे गृहस्थ भी उन्हें वैसाही उत्कृष्ट समझते और सन्मान करते हैं । केवल गृहस्थ ही उनका सन्मान नहीं करते किन्तु साधु भी उनकी प्रशंसा करता हैं ॥४५॥ आयरिए पत्यादि सवा साधुसो, मायानी तथा श्रमशानी माराधना કરે છે, અર્થાત્ આચાર્યાદિકને પિતાના સયમની ઉત્કૃષ્ટતાથી પ્રસન્ન કરે છે, જેથી ગુડો પણ તેમને એવા જ ઉત્કૃષ્ટ સમજે છે અને તેમનું સન્માન કરે છે કેવળ ગ્રહ જ એમનું સન્માન નથી કરતા, પરંતુ સાધુઓ પક્ષ એમની प्रशसा रे छे (४५)
SR No.010497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages623
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size28 MB
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