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________________ - ४७६ श्रीदशवकालिकसूत्रे । मूलम्-तं च होज्ज अकामेणं, विमणेण पडिच्छियं । तं अप्पणा न पिबे, नो वि अन्नस्स दावए ॥०॥ छाया-तच्च भवेद् अकामेन, विमनसा प्रतिगृहीतम् । तद् आत्मना न पिवेत्, नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ॥८०॥ सान्वयार्थः-तं-वह उस प्रकारका धोवन यदि अकामेणं-विना इच्छासे दाताके अनुरोधसे च=तथा विमणेणं-मनके दूसरी तरफ होनेके कारण पडिच्छिय-लेलिया गया हो तो तं-उस धोवनको न-न तो अप्पणा अपने खुद पिवेपिये और नोन अन्नस्स अवि-दूसरोंकोभी दावए देवे ॥८०॥ टीका-'तं च' इत्यादि। तच्च धौतजलं यदि अकामेन स्वानिच्छया, दाभ्यनुरोधेनेति भावः; विमनसा अन्यमनस्कतया, 'हेतौ तृतीया' प्रतिगृहीतं तद् आत्मना स्वयं न पिवेद नो अपि अन्यस्मै दापयेत् ॥८०॥ तर्हि किं कुर्यात् ? इत्याह-'एगंत०' इत्यादि । मूलम्-एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिया। जयं परिढविज्जा, परिठ्ठप्प पडिक्कमे ॥ ८१ ॥ छाया-एकान्तमवक्रम्याऽचित्तं प्रत्युपेक्ष्य । ___यतं परिष्ठापयेत् , परिष्ठाप्य प्रतिक्रामेत् ।। ८१ ॥ उस धोवनका क्या करे ? सो वताते हैं सान्वयार्थः-एगतं एकान्त स्थानम अवक्कमित्ता-जाकरके अचित्तं-एके न्द्रियादिमाणीरहित अचित्त स्थानको पडिलेहिया पूंजकर उस धोवनको जयं 'तं च' इत्यादि । यदि ऐसा पानी अनिच्छापूर्वक दाताके अनुरोधसे अथवा विना ध्यानसे ग्रहण कर लिया हो तो स्वय उसे न पिये और न दुसरेको पिलावे ॥ ८०॥ फिर क्या करे सो कहते हैं-'एगंत०' इत्यादि । तं च त्यादि ने सयु पाए भनिछापू हाताना मनुरोधथी अथवा બે-ધ્યાનથી ગ્રહણ કરી લીધુ હોય તે પિતે તે ન પીએ અને ન બીજાને पीपावे. (८०) पछी शु ४३ ते ४ छ-एगंत. त्या
SR No.010497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages623
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size28 MB
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