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________________ - - ' श्रीदशवैकालिकसूत्रे सामुद्रः समुद्रोत्थलवणः (४२), पांशुक्षार: ऊपरलवणः (४३), च-तथा काललवणः कृष्णलवणः 'विइलवण' इतिप्रसिद्धः (४४), आमका-सचित्तः, 'आमक' इत्यस्योत्तरार्द्ध सर्वत्र सम्बन्धः । अत्र पृथ्वीकायविराधनादयो दोषा भवन्ति ।। ८ ॥ ४५ ४९ ४ ७ मलम-धुवणीत वसणे य, वत्थीकम्म-विरेयणे । ४८ ४९५० ५२ अंजणे दंतवण्णे य, गायब्भंगविभूसणे ॥९॥ छायाः-धूपनमिति वमनं च, वस्तिकर्म विरेचनम् । __ अञ्जनं दन्तवर्णश्च, गात्राभ्यङ्ग-विभूपणे ॥९॥ सान्वयार्थ:-(४५) धुवणेत्ति-रोग मिटाने आदिके लिए किसी स्थानमें धूप देना, (४६) वमणे प्रयत्नपूर्वक वमन करना, (४७) वत्थीकम्म बस्तीकर्म करना, य=और (४८) विरेयणे-विरेच-जुलाब लेना, (४९) अंजणे अंजनमुरमा आदि आंजना, (५०) दंतवण्णे-दातून मसी आदिसे दाँत साफ करना, (५१-५२) गायन्भंगविभूसणे-शरीरको तैल आदिसे मालिश करना (६१) तथा वस्त्र आदिसे भूपित करना (५२) ॥९॥ टीका-धूपनं रोगाचपशान्तिनिमित्तं स्थानकादिपु धृपदानम् , सौगन्ध्योत्पत्तिनिमित्तमंशुकादीनां धूपादिना वासनञ्च (४५), (४२) सचित्त समुद्री नमकका सेवन करना। (४३) सचित्त ऊपर नमकका सेवन करना । (४४) सचित्त काले नमकका सेवन करना ॥ ८॥ (४५) रोग आदिकी शान्ति अथवा सुगंधिके लिए स्थानक या वस्त्र आदिमें धूप देना। (૪૨) સચિત્ત સમુદ્રના લુણનું સેવન કરવું (४३) सथित्त ५२ सूर (मास) नु सेवन ४२j (४४) सचित्त मा भानु सेवन ४२७ (८) (૪૫) રાગાદિની શાનિત અથવા સુગંધિને માટે સ્થાનક યા આદિને ધૂપ કર.
SR No.010497
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages623
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size28 MB
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