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________________ पिंडेपणा करते हुए भी दूसरों पर भार भूत नहीं होते। ऐसे महात्मा निरन्तर अपनी कल्याणसिद्धि करते हुए भी अन्य अनेक श्रेयार्थी मुमुनु जीवों के लिये महाकल्याण के निमित्त रूप बन जाते हैं। उनको देखकर हजारों लाखों भूली हुई. आत्माएं सुमार्ग पर आजाती हैं; सैंकडो हजारों आत्माएं आत्मदृष्टी बन जाती हैं, सैंकडों इस भवसागर को पार कर जाती हैं। ऐसे महापुरुषों का क्षणिक सम्मिलन भी आत्मा को क्या से क्या बना देता है ! परन्तु दूसरे को थोडा सा भी दुःख दिये विना और अन्य सूक्ष्म जीवों को भी पीडा न देते हुए परिपूर्ण विशुद्धिपूर्वक देह का पोपण करना यह बात साधु के लिये तलवार की धार पर चलने जैसी बड़ी ही कठिन कसौटी के समान है साधक उस कसौटीमें पार कैसे उतरें इसका इस अध्यायमें बडा ही सुन्दर वर्णन किया है। भिक्षार्थ जाने के लिये बाहर निकलने से लेकर भिक्षा लेकर पीछे आने और भोजन करने तक की समस्त क्रमिक क्रियाओं का निरूपण. नीचे किया जाता है। गुरुदेव बोले :[१] जव मिक्षा का काल प्राप्त हो तब साधु व्याकुलता रहित (निराकुलता के साथ) और मूर्छा (लोलुपता) रहित होकर इस क्रमयोग से आहार पानी (भिता) की गवेपणा करे। टिप्पणी-साधक नितुको प्रथम प्रहरमें स्वाध्याय, दूसरे प्रहरमें ध्यान और तीसरे प्रहरमें भंडोपकरण (संयम के उपयोगी साधनों) की प्रतिलेखना कर वर्तमान काल की परिस्थिति के अनुसार जिस गांवमें, जो समय गोचरी (भिक्षा ) का हो उसी समयमे भिक्षाचरी के लिये जाना उचित है। [२] गांव अथवा नगरमें गोचरी के निमित्त जानेवाला मुनि उद्वेग रहित होकर श्रव्याकुल चित्त से मंद मंद (उपयोग पूर्वक), गति से चले।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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