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________________ पिंडैषणा -(०)(भिक्षाकी गवेषणा) प्रथम उद्देशक साधु की भिक्षा का अर्थ यह है कि दूसरे को लेशमात्र भी कष्ट न पहुंचा कर और केवल आत्मविकास के लिये ही प्राप्त देह साधन से भरपूर काम लेने के लिये उसको पोषण देने को जितनी आवश्यकता हो उतनी ही अन्नादि सामग्री प्राप्त करना । साधु की भिक्षामें ये तीन गुण होने चाहिये। जिस भिक्षामें इन गुणों उद्देश्यों की पूर्ति का ध्यान नहीं होता वहां 'साधुत्व' भी नहीं होता और उस भिक्षामें सामान्य भिक्षा की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है । कंचन एवं कामिनी से सर्वथा विरक्त ऐसे त्यागी पुण्यात्मा पुरुष ही ऐसी आदर्श भिक्षा मांगने और पाने के अधिकारी हैं। जिसने राष्ट्रगत, समाजगत, कुटुंबगत और व्यक्तिगत प्राप्त सभी संपत्ति, उदाहरणार्थ धन, स्त्री, पुत्र, परिवार, घर, माल मिलकत, आदि सब से ममता एवं स्वामित्व भाव को हटा कर उन सब को विश्वचरणोंमें समर्पण कर दिया है, जिसने स्वपर कल्याण के मार्गमें ही अपनी काया निछावर कर दी है ऐसे समर्थ साधु पुरुष ही इस वृत्ति से अपना जीवन बिता सकते हैं और अपना पोषणा
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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