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________________ दशवकालिक सूत्र टिप्पणी-अपने शरीर तथा इन्द्रियों को मुख मैले मिले इसके लिये सदैव चिन्ता रखनेवाले, मालती तथा शरीर विभूषा में रुचि रखनेवाले साधु का नन संचन में लग ही नहीं सकता क्योंकि संयम का अर्थ हो शरीर का ननत्व पटाना और आत्मनिति करना है। जो साधु सरीर को टोपयप में सतत लगा रहता है वह आत्मा को अनन्त नुन्दरता को नहीं जानता। यदि वह उसे जानता होता तो इस क्षणिक, विनाशी शरीर को सजाता ही क्यों ? उसे सजाने की चेष्टा हो क्यों करे ? इसी लिये शरीर प्रेमी साधक का विकास रुक जाता है यह स्वाभाविक ही है। गादाने निकामशायिन् ' शब्द का प्रयोग किया है। इसके 'इन्' प्रत्यय का प्रयोग 'स्वभाववाले' के अर्थ में हुआ है। [२७] जिसमें आभ्यंतर एवं बाह्य तपश्चर्या की प्रधानता है, जो प्रकृति ले सरल तथा क्षमा एवं संयम में अनुरक्त है और जो समभावपूर्वक २२ परिपहों को जीत लेता है ऐसे साधक के लिये सुगति प्राप्त होना सरल है। टिप्पणी-परिपहों का विशद वर्णन श्री उत्तराभ्ययन सूत्र के दूसरे अभ्यापर्ने तथा तपश्चर्या का वर्णन ३० वें अध्ययन में दिया है जिज्ञातु उन्हें वहां पढ लेवें। [२८] जिन को तप, संयम, क्षमा, और ब्रह्मचर्य प्रिय हैं ऐसे साधक यदि अपनी पिछली अवस्थामें भी संयम मार्ग का अनुसरण करते हैं तो वे शीघ्र ही अमर भव (उच्च प्रकार के देवलोकमें जन्म) प्राप्त करते हैं। . टिप्पणी-थोडे समय का भी उच्च संयन उच्च गति की साधना कर सन्ता है। [२६] इस प्रकार सतत यत्नावान एवं सत्यग्दृष्टि साधक अत्यन्त दुर्लभ श्रादर्श साधुत्व को प्राप्त होकर पूर्वोक पड्जीवनिकाय की मन, वचन एवं काय इन तीनों योगों से विराधना न करे।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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