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________________ पड् जीवनिका [२२] ऐसे सर्वलोकव्यापी केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की प्राप्ति होने पर वह साधक जिन (रागद्वेप रहित) केवली होकर लोक एवं अलोक के स्वरूप को जान सकता है। [२३] वह केवली जिन, लोक एवं अलोक के स्वरूप को जानकर मन, वचन और काया के समस्त व्यापारों को रोक कर शैलेशी (आत्मा की मेरु के समान अचल, अडग निश्चल दशा) अवस्था को प्राप्त होता है। [२४] भोगों को द्ध कर शैलेशी अवस्था प्राप्त होने के बाद ही सब कर्मों का क्षय कर के कर्मरूपी रज (धूल) से सर्वथा रहित - होकर वह साधक सिद्धगति को प्राप्त होता है। [२५] समस्त कर्मों का क्षय कर कर्मरूपी रजसे रहित हो सिद्ध होने पर वह स्वाभाविक रीति से इस लोक के मस्तक (अन्तिम स्थान) पर जाकर शाश्वत सिद्ध रूपमें विराजमान होता है। टिप्पणी-आत्मा का स्वभाव ही ऊर्ध्वगमन है किन्तु कर्मों के फन्दों में फंसे रहने के कारण उसे कर्म जैसा नचाते हैं वैसा ही उसे नाचना पडता है। यही कारण है कि वह विलोम गतियों में जाता है। जब वह कर्मों से सर्वथा रहित हो जाता है तब वह स्वाभाविक गति से सीधा ऊर्ध्वगमन करता है। [२६] ऐसे साधु को जो सुख का स्वाद अर्थात् मात्र बाह्य सुख का ही अभिलापी हो, मुझे सुख कैसे मिले इसके लिये निरंतर व्याकुल रहता हो, बहुत देर तक सोते पडे रहने के स्वभाव वाला हो और जो शारीरिक सौन्दर्य को बढाने के लिये अपने हाथ पैर आदि को सदा धोता साफ करता रहता हो ऐसे (नामधारी) साधु को सुगति मिलना बडा ही दुर्लभ है।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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