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________________ पड् जीवनिका ४१ [] अयलापूर्वक लेटनेवाला मनुष्य लेटते हुए अनेक जीवों की हिंसा करता है और इससे वह जिस पापकर्म का बंध करता है उसका कडुना फल स्वयं उसको ही भोगना पड़ता है। [श अयलापूर्वक अप्रकाशित पात्र में भोजन करने किवा रस की श्रासक्ति पूर्वक भोजन करने से वह भोजन करनेवाला प्राणिभूत की हिंसा करता है और इससे वह जिस पापकर्म का बंध करता है उसका कटुक फल स्वयं उसको ही भोगना पड़ता है। [६] अयत्ना से विना विचारे यद्वातद्वा बोलनेवाला मनुष्य प्राणिभूत की हिंसा करता है और इससे वह जिस पापकर्म का बंध करता है उसका कटुक फल स्वयं उसको ही भोगना पडता है। टिप्पणी-अनेक क्रियाएं ऐसी है जिनमें प्रत्यक्ष रूपसे हिंसा होती दुई दिवाई नहीं देती, उदाहरण के लिये बोलने में। किसी को आप कितना भी फटक वचन क्यों न कहिये, मुननेवाले के प्राणों का व्यतिपात उससे नहीं होगा किन्तु फिर भी असत्य किंवा मर्मभेदी शब्द प्रयोग करने से सुननेवाले के मन को दुःख अवश्य पहुंचता है और इस कारण से ऐसा वचन हिंसा हो है। इस क्रिया द्वारा जिस पापकर्म का दंध होता है वह अन्तमें बड़ा ही परिताप देता है। [७] शिप्यः-हे पूज्य ! (कृपाकर आप मुझे बतायो कि) कैसे चले? किस तरह खडे हो ? किस तरह बैठ ? किस तरह लेटें, कैसे खांय और किस तरह बोलें जिससे पापकर्भ का बंध न हो ? 17 गुरु:-हे भद्र ! उपयोगपूर्वक चलने से, उपयोगपूर्वक खडा होने से, उपयोगपूर्वक बैठने से, उपयोगपूर्वक लेटने से, 'उपयोगपूर्वक भोजन करने से एवं उपयोगपूर्वक बोलने से पाप बंध नहीं होता।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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