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________________ षट् जीवनिका जाते हैं। ऐसे भिक्षुक जीवन के लिये ही उपरोक्त प्रकार की अहिंसा की प्रतिज्ञा का विधान किया गया है। गुरु-संयमी, पापसे विरक्त तथा नये पापकर्मों के बंध का प्रत्याख्यान लेनेवाले साधु अथवा साध्वी को, दिनमें या रातमें, • एकांत या साधुसमूहमें, सोते जागते किसी भी अवस्थामें हाथ पर, पग पर, बांहों पर, जांघ पर, पेट पर, मस्तक पर, वस्त्र पर, भिक्षापान पर, कंवल पर, पायपोंछ पर, रजोहरण पर, गुच्छा पर, मात्रा (मूत्र) के भाजन पर, दंड पर, देहली पर, पाटिया पर, शय्या, बिस्तरे अथवा आसन पर अथवा अन्य किसी भी संयम के साधन उपकरण आदि पर अवस्थित कीटक, पतंगिया, कुंथु अथवा चींटी दिखाई पडे तो उसको सर्व प्रथम बहुत उपयोग पूर्वक उसे देखे, देखकर परिमार्जन करे और फिर बादमें उन जीवों को (दुःख न पहुंचे इस प्रकार) एकांतमें ले जाकर छोड देवे, किन्तु उनको थोडीसी भी पीडा न दे। टिप्पणी-साधक जीवन के लिये 'प्रतिशा' अति आवश्यक एवं , आदरणीय वस्तु है। साधक जीवनमें, जहां प्रतिक्षण दृढ संकल्पबल की जरूरत होती है वहां प्रतिशा उस बल की पूर्ति करनेमें सहचरी का कार्य करती है। प्रतिज्ञा, यह निश्चल जीवन की प्राण और विकास की जननी है। मन के दुष्ट वेगको रोकनेमें वह अर्गला (चटकनी ) का काम करती है। इसी लिये प्रतिज्ञा की रस्सी पर नट की तरह लक्ष्य रखकर श्रमण साधक अपना रास्ता काटता है और प्रतिज्ञा के पालनके लिये आशा, तृष्णा, काम, मोह तथा विश्वमें बजते हुए अनेक बाजों की तरफ ध्यान न देकर वह जीवनके अंत तक अटल, अडग एवं एकलक्ष्य बना रहता है।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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