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________________ - - दशवकालिक सूत्र ___ "इस तरह उक्त पांच महाव्रतों तथा छठे रात्रिभोजन त्याग रूप व्रत को अपनी आत्मा के कल्याण के लिये अंगीकार कर निर्द्वन्द भावसे विचरता हूं।" इस प्रकार शिष्यने गुरु के समीप जीवनपर्यन्त के लिये व्रत अंगीकार किये। चारित्रधर्म के इस अधिकार के बाद छकाय के जीवों की रक्षा किस प्रकार करनी चाहिये, अर्थात् जीवनपर्यंत दयाधर्म का पूर्ण रूप से किस तरह पालन किया जाय उसकी विधिका उपदेश करते हैं। गुरु-संयमी, पापसे विरक्त तथा नये पापकर्मोके बंध का प्रत्याख्यान लेनेवाला, चाहे साधु हो या साध्वी, उसको दिन या रातमें, एकाकी या साधु समूहमें, लोते या जगते हुए किसी भी अवस्थामें कभी भी पृथ्वी, दीवाल, शिला, ढेला, सचित्त धूलसहित शरीर किंवा सचित्त धूलसहित वस्त्र को हाथसे, पैरसे, लकडीसे, दंडेसे, उंगलीसे, लोहे की छड़ीसे, अथवा लोहेकी छड़ियों के समूहसे काटछाटना, खोदना, हिलाना (परस्पर एक दूसरे को टकराना) किंवा छेदन भेदन कराना नहीं चाहिये, न दूसरों के द्वारा वैसा कटाना, छटाना, खुदवाना, हिलवाना अथवा छेदन भेदन कराना चाहिये और न किसीको काटते, छांटते, खुदवाते, हिलाते अथवा छेदन भेदन करते देखकर उसकी प्रशंसा (अनुमोदना) ही करनी चाहिये। शिप्या-हे भगवन् ! मैं जीवन पर्यन्त के लिये मनसे, वचनसे और कायसे स्वयं वैसा नहीं करूंगा, दूसरों से वैसा नहीं कराऊंगा और न अनुमोदन ही करूंगा। पूर्वकाल में तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ हो उससे मैं अब निवृत्त होता हूं। अपनी आत्माकी साक्षी पूर्वक उस पापकी निंदा करता हूं। आपके समक्ष मैं उसकी गर्हणा करता हूं और अवसे ऐसे पापकारी कर्मसे अपनी आत्माको सर्वथा अलिप्त करता हूं।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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