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________________ 'पद् जीवनिका गुरु-श्रन्न, खाद्य, पेय, और स्वाद्य (मुखवास श्रादि) इन चारों प्रकारों के श्राहारों को रात्रिमें न खाना चाहिये, न दूसरों को खिलाना चाहिये और न रात्रिभोजन करनेवाले की अनुमोदना ही करनी चाहिये। शिष्यः हे पूज्य! मैं जीवनपर्यन्त तीन करणों एवं तीन योगों . से रात्रिभोजन नहीं करूंगा, नहीं कराऊंगा और न रात्रिभोजन करनेवाले की प्रशंसा ही करूंगा। तथा पूर्वकालमें तत्संबंधी मुझसे जो कुछ भी पाप हुआ हो उससे मैं निवृत्त होता हूं; अपनी आत्मा की साक्षीपूर्वक उस पाप की निंदा करता हूं; आपके समक्ष मैं उसको धिक्कारता हूं और उससे-उस पापकारी कामसे अपनी आत्माको सर्वथा अलिप्त करता हूं॥६॥ टिप्पणी-वस्तुतः यदि देखा जाय तो मालूम होगा कि उपरोक्त समस्त व्रतों का संबंध शरीर की अपेक्षा आत्मवृत्ति से अधिक है। अनादि काल से चली आई हुई दुष्पत्तियां निरन्तर अभ्यासके कारण जीवन के साथ इतनी अधिक हिलमिल गई है-एकाकार हो गई है कि इन प्रतिशाओं का सर्वथा संपूर्ण पालन करने के लिये साधक को अपार धैर्य एवं सतत जागृति की आवश्यकता पड़ती है और इसी लिये उक्त पांचों व्रतों को 'महावत' कहा है । छठा व्रत मी नियम रूपसे आजीवन पालना पड़ता है और चाहे जैसा काट क्यों न आ पड़े तो भी उसका पालन मुनि करता ही है। फिर भी पूर्वोक्त पांच व्रतों के समान यह उतना कठिन नहीं है, इस लिये इसकी गणना महानत' में न कर व्रत' रूपमें ही को है। जबतक उपरोक्त व्रतों का संबंध मात्र शरीर के साथ ही रहता है तवतक उनका पालन यथार्थ न होकर केवल दंभरूपमें ही समझना चाहिये । ऐसे दामिक पालन से यथार्थ आध्यात्मिक फल की प्राप्ति नहीं हो सकतीइस बात का प्रत्येक भिक्षुक को प्रतिक्षण ध्यान रखना चाहिये। ..
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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