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________________ दशवकालिक सूत्र [१] वनस्पति काय में भी भिन्न भिन्न शरीरों में संख्यात, असंख्यात और अनंत जीवों का स्वतंत्र अस्तित्व होता है और उनसे जबतक अग्नि, लवण (नमक) आदि से संपर्क न हो तबतक वह सचित्त रहती है किन्तु उनका संपर्क होने पर वह अचित्त हो जाती है। वनस्पति के मेदः() अग्रवीजा वनस्पति-वह वनस्पति जिस के सिरे पर बीज लगता हैं, जैसे कोरंट का वृक्ष, (२) मूलबीजा वनस्पति-वह वनस्पति जिसके मूल में बीज लगता है जैले कंद आदि । (३) पर्ववीजा वनस्पति-यह वह वनस्पति है जिसकी गांठों में वीज पैदा होता है जैसे गन्ना आदि । (४) स्कंध बीजा वनस्पति-जिसके स्कंधों (जोडों) में चीजों की उत्पत्ति होती है जैसे वड, पीपल, गूलर आदि। () बीजरूहा वनस्पति-वह वनस्पति, जिसके वीजमें बीज रहता हो जैसे चौवीस प्रकार के अन्न, (६) सम्मूर्छिम वनस्पति-जो वनस्पति स्वयमेव पैदा होती है अंकुर आदि । (७) तृण आदि, (८) बेल-चंपा, चमेली, ककडी, खरबूजा, तरबूज आदि की बेलें। इत्यादि प्रकार के बीजों वाली वनस्पति में पृथक् २ अनेक जीव रहते हैं और जब तक उनको विरोधी जातिका शस्त्र न लगे तबतक वे वनस्पतियां सचिरा रहती हैं। ___ सकाय जीवों के भेदःचलते फिरते त्रस (द्वीन्द्रियादिक) जीव भी अनेक प्रकार के होते हैं। इन जीवों के उत्पन्न होने के मुख्यतया अाठ स्थान (प्रकार) हैं जिनके नाम क्रमशः ये हैं:-(१) अंडज-वे त्रसजीव, जो अंडों से पैदा होते हैं जैसे पड़ी आदिः (२) पोतज-वे त्रसजीव, जो अपने जन्म के समय चर्म की पतली चमडी से लिपटे रहते हों जैसे हाथी आदि । (३) जरायुज-वे सजीव, जो अपने जन्म के समय जरा से
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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