SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पडू जीवनिका २३ पड्जीवनिका की प्ररूपणा की है, सुंदर प्रकार से उसकी प्रसिद्धि की है और सुन्दर रीतिसे उसको समझाया है । शिष्यने पूंछा:- क्या उस अध्ययन को सीखने में मेरा कल्याण है ? गुरुने कहा :- हां, उससे धर्म का बोध होता है । शिप्यने पूंछा:- हे गुरुदेव ! वह पड्जीवनिका नामका कौनसा अध्ययन है जिसका काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान महावीर प्रभुने उपदेश किया है, जिसकी प्ररूपणा एवं प्रसिद्धि की है और जिस अध्ययन का पठन करने से मेरा कल्याण होगा ? जिससे मुझे धर्मबोध होगा ऐसा वह अध्ययन कौनसा है ? गुरुने कहा :- हे श्रायुष्मन् ! सचमुच यह वही पड्जीवनिका मामका अध्ययन है जिसका काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान महावीरने उपदेश किया है, प्ररूपित किया है और समझाया है । इस अध्ययन के सीखने से स्व कल्याण एवं धर्मबोध भी होगा । यह अध्ययन इस प्रकार है: ( श्रव छकाय के जीवों के नाम पृथकू पृथक् गिनाते हैं) (१) पृथ्वीकाय संबंधी जीव, (२) जलकाय संबंधी जीव, (३) श्रनिकाय संबंधी जीव, (४) वायुकाय संबंधी जीव, (५) वनस्पत्तिकाय संबंधी जीव और (६) सकाय संबंधी जीव । टिप्पणी:-जिन जीवों का दुःख प्रत्यक्ष न देखा जा सके किन्तु अनुमान से जाना जा सके और जो चलता फिरता न हो ( स्थिर रहता हो ) उनको ' स्थावर जीव ' कहते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और वनस्पति काय के जीव ' स्थावर जीव' कहे जाते हैं । जो जीव अपने सुख दुःख को प्रकट करते हैं और जिनमें चलने फिरने की शक्ति है, उन जीवों को ' त्रस जीव' कहते हैं । [१] पृथ्वीका में अनेक जीव होते हैं । पृथ्वीकाय की जुदी जुदी खंडकायों में भी बहुत से जीव हुआ करते हैं । पृथ्वी कायिक ३
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy