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________________ नियुसिकार कहते हैं: निजूद किर सेन्जभवेण दसकालय तण ॥ भद्रबाहु नि० ॥ १२ ॥ अर्थात् शय्यंभव नामक प्राचार्य द्वारा प्रणीत यह ग्रन्थ है। हेमचंद्राचार्य ने भी इसी मत को प्रमाणभूत माना है । दशवैकालिक सूत्र की संपूर्ण रचनाशैली से भी इसी मत की पुष्टि होती है। दशवैकालिक की रचनाशैली.. इस ग्रन्थ के प्रथम अयध्यन की पहिली गाथा में जैन धर्म का संपूर्ण रहस्य समझाया गया है। जैनदर्शन का अंतिम ध्येय संपूर्ण आत्म स्वरुप की प्राप्ति का है। कर्मों से सर्वथा मुक्त हुए विना संपूर्ण आध्यात्मिक की प्राप्ति हो नहीं सकती और संपूर्ण मुक्ति की प्राप्ति क्रोधादि डिपुओंका संपूर्ण क्षय हुए चिना बिलकुल असंभव है। इसलिये उन रिपुओं का संहार करने के लिये " अप्पाणमव जुज्झाहि, अप्पा चेव दमेयन्यो " (आत्मा के साथ ही युद्ध करो; आत्मा का ही दमन करो) का उपदेश दिया गया है । उस युद्ध में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, संयम तथा तपश्चर्या को शस्त्र बना कर गृहस्थ तथा श्रमण मार्गों के राजमार्ग द्वारा ध्येय तक पहुंचने का उपदेश दिया है। उसके बाद से ऊनी संख्याओं के अध्यायो में श्रमण चारित्र तथा चौथे अध्याय से लेकर पूरी संख्याओं के अध्यायों में मुख्यतः साधुजीवन संबंधी शिक्षाओं का धाराप्रवाह वर्णन किया है। इस प्रकार के अस्खलित धाराप्रवाहिक शैली से यह सिद्ध होता है कि यह सूत्र अपने शिष्य को संवोधने के लिये किसी गुरुदेव ने बताया हो!
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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