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________________ " इसमें जुदी २ वस्तुओं का समावेश होने से दंतकथा के अनुसार हेमचंद्र चार्य के परिशिष्ट पर्व ५,८१ में दशवैकालिक सत्र को 'जैनधर्मका तत्त्वबोध समझानेवाला ग्रंथ माना है ।" स्वयं डॉक्टर शूविंग ने भी आगे जाकर इसी मत को स्वीकार किया है । मूल संज्ञा का प्रारंभकाल रोचक है एक प्रश्न यह भी होता है कि क्या ये ग्रंथ प्रारंभ से ही 'मूल सूत्र ' कहलाते आये हैं ? यदि नहीं, तो कबसे इनका यह नाम पडा ? निःसंदेह यह प्रश्न पुरातत्त्व के विद्यार्थियों के लिये बडा ही और खोजका है, किन्तु हमारा उद्देश्य इतनी गहराई में उतरने का नहीं है क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टिसे यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण भले ही हो किन्तु उससे ग्रंथ के महत्त्व में कुछ भी अन्तर नहीं पडता । प्राप्त प्रमाणों से यही मालूम होता है कि इन ग्रंथों का 'मूल सूत्र' नाम श्री हेमचंद्राचार्य के कालमें ( ईसाको लगभग १२ वीं शताब्दि ) पडा होगा क्योंकि इसके पहिले अन्य सूत्रों में कहीं भी उन्हें मूल सूत्र नहीं कहा गया । नन्दी सूत्र में आगम ग्रंथों को केवल दो भागों में बाँटा गया है: ( १ ) अंगप्रविष्ट, और ( २ ) अंगबाह्य । अंगवाह्य के भी दो भेद हैं: (१) कालिक, और (२) उत्कालिक । उसमें दशवैकालिक सूत्र को उत्कालिक आगमों में शामिल किया है, किन्तु उसमें आदि से अन्त तक कहीं भी 'मूलसूत्र का नाम तक नहीं मिलता । इससे सिद्ध होता है कि यह संज्ञा प्रारंभ में न थी; बाद में प्रचलित हुई ओर वह अनुमानतः समय में प्रचलित हुई और वह भी इसीलिये कि इनमें जैनधर्म का खाका अत्यन्त सरलता से खींचा गया है । 3 हेमचंद्राचार्य के (२१)
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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