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________________ भिक्षु नाम I] तथा हार को प्राप्त भोजन का आदर्श मा तप, और संयममें रह कर तप द्वारा पूर्व संचित कर्मों के लयका प्रयत्न करता है वही आदर्श मित्र है। [1] तथा भिन्न २ प्रकारके आहार, पानी, खाद्य, तथा स्वाध आदि सुन्दर पदार्थों की मिता को कल या परसों के लिये संचय कर नहीं रखता और न दूसरों से रखाता ही है वही श्रादर्श मिञ्ज है। [] तथा जो भिन्न २ प्रकार के भोजन, पान, खाद्य तथा खाद्य थाहार को प्राप्त कर अपने स्वधर्मी साथीदार साधुओं को बुलाकर उनके साथ भोजन करता है और भोजन के बाद स्वाध्यायमें संलग्न रहता है वही श्रादर्श मिल हैं। टिप्पणी-अपने साथीदारों के विना अकेले ही मिक्षा आरोगने से अतिजिहंता तथा आतिलोलुपता आदि दोष आते हैं। साधुजीवनमें के प्रत्येक कार्य से निःस्वार्थता टपकनी चाहिये । सहभोजन भी उसके प्रदर्शन का एक कार्य है । खाली बैठा हुआ साधु कुतर्कों एवं अशुभ योग में न फंसे इसलिये उसको स्वाध्याय करनेका उपदेश दिया है। [१०] जो साधु कलहकारिणी, द्वेपकारिणी तथा पीडाकारिणी कथा नहीं कहता, निमित्त मिलने पर भी किसी पर क्रोध नहीं करता, इन्द्रियों को निश्चल रखता है, मन को शांत रखता है, संयममें सर्वदा लवलीन रहता है तथा उपशम भावको प्राप्त कर किसी का तिरस्कार नहीं करता वही आदर्श भितु है। १] जो कानों को काटे के समान दुःख देनेवाले आक्रोश वचनों, प्रहारों, और अयोग्य उपालंभों ( उलाहनों) को शांतिपूर्वक सह लेता है, भयंकर एवं प्रचंड गर्जना के स्थानों में भी जो निर्भय रहता है और जो सुख तथा दुःखको समभाव पूर्वक भोग लेता है, वही आदर्श भिनु है। . .
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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