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________________ - - - विनयसमाधि होता है) इसलिये तू साधुगुणोंको ग्रहण कर और असाधुगुणों (अवगुणों) को छोड दे। इस तरह अपनी ही प्रारमा द्वारा अपनी आत्माको समझाकर जो राग द्वेष के निमित्तोंमें लेमभाव धारण कर सकता है वही वस्तुतः पूजनीय है। टिप्पणी-सद्गुणों की साधना ही साधुता है अन्यचिहोंमें नहीं ऐसी विचारण जिस साधुमें निरन्तर हुआ करती है वही साधुत्वकी आराधना कर अपने दोषोंको दूर कर सकता है। [१२] अपनेसे वढा हो या छोटा हो. स्त्री हो या पुरुप, साधक से या गृहस्थ, जो किसीकी भी निंदा या तिरस्कार नहीं करता तथा अहंकार एवं क्रोधको छोड़ देता है वही सचमुच पूजनीय है। [१३] गृहस्थ जिस तरह अपनी कन्या के लिये योग्य वर देखकर उसे विवाह देता है उसी तरह शिष्यों द्वारा पूजित गुरुदेव भी यलपूर्वक ज्ञानादि सद्गुणोंकी प्राप्ति करा कर साधकको उच्च श्रेणीमें रख देते हैं। ऐसे उपकारी एवं सम्मान्य महापुरुषोंकी जो जितेन्द्रिय, सत्यप्रेमी, तपस्वी साधक पूजा करता है वही वस्तुतः पूजनीय है। [१४] सद्गुणोंके सागरके समान उन उपकारी गुरुत्रोंके सुभापितोंको सुनकर जो बुद्धिमान मुनि पांच महाव्रत और तीन गुप्तियोंसे युक्त होकर चारों कपायोंको क्रमशः छोड़ता जाता है वही वस्तुतः पूजनीय है। टिप्पणी-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रहका संपूर्ण पालन करना ये पांच महाव्रत है। [१] इस प्रकार यहां सतत गुरुजनकी सेवा करके जैन दर्शनका रहस्य जानने में निपुण एवं ज्ञानकुशल विनीतं मितु अपने पूर्व संचित कर्ममलको दूर कर अनुपम प्रकाशमान मोक्षगतिको प्राप्त होता है।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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