SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुवाक्यशुदि [४८] इस लोकमें बहुत से केवल नाममात्र के साधु होते हैं। उनका वेश तो साधुका होता है किन्तु उनमें साधु के गुण नहीं होते ऐसे असाधुको साधु न कहे किन्तु साधुताका धारक ही साधु है ऐसा कहे। टिप्पणी-वस्तुतः साधुपदकी जवाबदारी बहुत बडी है। किसी व्यक्तिमें साधुत्व के गुण न होने पर भी यदी साधु उसे साधु कहे तो जनता उसके वचनों पर विश्वास रख कर भ्रममें पट जायगो इतना ही नहीं, उसको देखकर जनता के मन पर साधुत्वके प्रति अरुचि भी पैदा हो सकती है। दूसरा कारण यह भी है कि ऐसे कुसाधुकी सगंतिसे इस साधुके चरित्र पर अवांछनीय असर पड़ेगा और यह असंभव नहीं कि उसके बहुतसे दुर्गुण उसमें जांय | इत्यादि अनेक कारणोंसे ऐसा विधान किया गया है। __ सच्चे साधुका स्वरूप [४] सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन से संपन्न तथा संयम एवं तपश्चर्या में अनुरक्त तथा ऐसे अन्य गुणों से सहित संयति को ही साधु कहते हैं। टिप्पणी-सचा विवेक, सची समझ, इंद्रियों तथा मनका संयम तथा सच्ची तपश्चर्या इन चारों गुणोंकी समन्वयता, अधिकता, को ही साधुता कहते है। साधुता की ऐसी सुवास जहां है वहीं साधुत्व है। [१०] देवों, मनुष्यों, अथवा पशुओं के पारस्परिक युद्ध या द्वन्द्व जहां चालू होतो 'अमुक पक्षकी जीत हो' अथवा 'अमुक की जीत होनी चाहिये, अथवा अमुक पक्षकी जीत नहीं,. अथवा अमुक पतको हारना पडेगा अादि प्रकार के वाक्य मिनु न बोले। . टिप्पणी-इस प्रकार बोलने से उनमें से एक पक्षके हृदयको आधात पहुंचने की संभावना है।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy