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________________ दशवैकालिक सूत्र ११६ भाषा दूसरे के नुसते उन्हीं राहोंमें नहीं निकलती-शो कुछ न कुछ हेरफेर हो ही जाता है । इसी दृष्टिसे ऐसे व्यवहारमें साधुको न पडने के लिये है कहा गया 1 [ ४५] 'तुमने अमुक माल खरीद कर लिया यह अच्छा किया, अमुक वस्तु बेच डाला ' यह ठीक किया, यह माल खरीदने योग्य है अथवा खरीदने योग्य नही है इस वस्तुके सौदे में आगे जाकर लाभ होगा इसलिये इसे खरीद लो, इस सौदे में लाभ नहीं है इसलिये इसे बेच डालो' इत्यादि प्रकारके व्यापारीके लिये उपयुक्त वाक्य भी संयमी पुरुष कभी न वोले । टिप्पणी- इस व्यवहारमें आलिक एवं बाह्य दोनों प्रकारोंसे पतन होता है। जब साधु इस तरह का वाक्य प्रयोग करता है तब उसके संयनको दूषण लगता है और बाह्य दृष्टिले भी ऐसे साधुके प्रति लोगोंको अप्रीति होती है । दूसरी बात यह भी है कि कुछ बातें उसने झूठी भी हो गृहत्यको लाभके बदले हानि हो सकती है। इसी प्रकार के अन्य अनेक दोष इसमें छिपे हुए हैं इसीलिये महापुरषोंने साधुको भविष्य-विद्या सीखनेकी मना की है क्योंकि ऐसा शाख पात्रताके विना बहुधा हानिकर्ता ही सिद्ध होता है । सकती है इससे [४६] कदाचित् कोई गृहस्थ अल्पमूल्य या बहुमूलय वस्तुके विषय में पूछना चाहे तो मुनि उसके संयम धर्ममें बाधा न पहुंचे इस प्रकारका प्रदूषित वचन ही वोले । [ ४७ ] और धीरमुनि किसी भी गृहस्थ को 'बैठो, आओ, ऐसा करो, लेट जाओ, खडे हो जाओ' इत्यादि २ प्रकार के बचन न बोले । टिप्पणी- गृहस्थके साथ अतिपरिचय में न आने के लिये ही यह बात कही गई है क्योंकि संयमी के लिये 'असंयमियों का अतिसंसर्ग हानिकर्ता होता है।
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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