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________________ जीवन में सुसाध्य हो सके; किन्तु श्रमणसाधकों को तो उन गुणों का संपूर्ण पालन करना होता है । इसलिये गृहस्थ साधक के व्रतों को 'अणुव्रत' और श्रमण के व्रतों को 'महावत' कहते हैं इसी प्रकार गृहस्थसाधिका (श्राविका) तथा साध्वी के अन्तर के विषय में मी जानना चाहिये। ___यह संपूर्ण सूत्र श्रमणसाधक को लक्ष्य करके कहा गया है इसलिये इसमें श्रमणजीवन संबंधी घटनाओं का विशेष प्रमाण में निर्देश हो यह स्वाभाविक ही है | किन्तु इस संस्कृति के साथ २ गृहस्थसाधक का संबंध सुईदोरा जैसा अति निकट का है, इसका उल्लेख उपरोक्त पेरेग्राफ में हो चुका है, इस दृष्टि से यह ग्रंथ श्रावकों के लिये मी अति उपयोगी है । यहां पर श्रमणजीवन संबंधो कुछ आवश्यक प्रश्नों पर विचार करना अनुचित न होगा । उनमें उत्सर्ग तथा अपवाद मार्ग को स्थान है या नहीं; और है तो कहांतक और उनका हेतु क्या है ? आदि पर विचार करें । संयमीजीवन में अहिंसा का मन, वचन और काय से संपूर्ण पालन करने के लिये पृथ्वी, जल, अमि, वायु, वनस्पति इत्यादि सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्राणियों का ( जबतक वे सजीव हों तबतक उनका) उपयोग करने का संपूर्ण निषेध किया गया है परन्तु यह निषेध संयम में उलटा बाधक न हो जाय इसके लिये उसी अध्ययन में उसका अपवाद भी साथ ही साथमें दिया है क्योंकि संयमी साधु कहीं काठका पुतला तो है नहीं, वह मी देहधारी मनुष्य है, उसे भी खाना, पीना, सोना, चलमा आदि (११)
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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