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________________ वे निश्चयात्मक है किंतु जो नियमोपनियम मूलगुगों की पुष्टि के .. लिये ही रचे गये है उन में अपवाद अवश्य हो सकते हैं। इस . प्रकार जैन दर्शन में उत्तरी तथा अपवाद ये दोनों ही मार्ग हैं। . अपवादमार्ग की आवश्यकता आज लोकमानत का झुकाव किवर है, समाज की आज क्या परिस्थिति है, मैं किस प्रश में खड़ा हूं, आदि समस्त परिस्थितियों का विचार कर के जो नियम वाधक हों उनका विवेकपूर्वक निराकरण कर के आत्मविकास का ध्येय न भूटने का दृष्टिविंदु निरन्तर रखते हुए अपवादमार्ग का पालन करना यही अनेकान्तवाद का प्रयोजन है। ऐते अनिवार्य संयोगो में ही अपवाद मार्ग की आपत्ति होती है और इन्हीं में उनकी उत्पत्ति हो सकती है । जैनदर्शन की विकासश्रेणी जैनदर्शन का विकास दो विभागो में विभक्त है: (१) गृहस्य जीवन में रहते हुए विकास करनेवाला गृहस्थ सापक, और (२) त्यागाश्रमी तापक, इन दोनों वर्गों का आदर्श तो एक ही किन्तु उन दोनों के विकास साधने की गति में जितना तारतम्य है उतना ही तारतम्य उन दोनों साधकों के साधनों में भी है । अहिता, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ये सब विकास के साधन है। उनके पालन में गृहस्थ साधक के लिये मर्यादा रखी गई है क्योंकि उसको गृहस्थ धर्म को निभाते हुए साथ ही साथ मानधन ने मी. आगे बढ़ना होता है और इसी कारण सब । ऋतों में उनके लिये उतनी मर्यादा रखी गई है जितनी उत
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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