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________________ -- - धमार्थकामाध्ययन १०१ थफ जाय तो गृहस्थ के यहां उनकी आशा ले कर विवेकपूर्वक अपनी थकावट दूर करने के लिये वहां बैठ सकता है। यह एक अपवाद मार्ग है। इसका एक या दूसरे प्रकार से लाभ लेकर कोई अनर्थ म कर बैठे इसको सब साधुओं को संभाल रखनी चाहिये। [६१] (सत्रहवां स्थान ) रोगिष्ठ किंवा निरोगी कोई भी भिक्षु यदि स्नान की प्रार्थना करे (अर्थात् स्नान करना चाहे) तो इससे अपने आचार (संयम धर्म) का उल्लंघन होता है और उससे अपने व्रतमें क्षति आती है ऐसा वह माने । [१२] क्योंकि क्षारभूमि अथवा दूसरे किसी भी प्रकार की वैसी भूमि पर असंख्य अतिसूक्ष्म प्राणी व्याप्त रहते हैं इसलिये यदि भिन्नु मर्म पानी से भी स्नान करेगा तो उन (जीवों की) विराधना हुए विना न रहेगी। [६३] इस कारण ठंडे अथवा गर्म (सजीव अथवा निर्जीव) किसी प्रकार के पानी से देहभान से सर्वथा दूर रहनेवाला साधु सान नहीं करता और जीवन पर्यन्त इस कठिन व्रत का पालन करता है। टिप्पणी-लान से जिस प्रकार शरीर शुद्धि होती है उसी प्रकार सौंदर्य वृद्धि भी होती है और इसी दृष्टिबिंदु से सिर्फ त्यागी के लिये इसे निषिद्ध कहा है। यद्यपि वैद्यक के नियमों के अनुसार त्यागी फ लिये मी देहशुद्धि की भावश्यकता तो है ही किन्तु वह शुद्धि तो सूर्य की किरणों आदि से भी हो सकती है। दूसरा कारण यह भी है कि साधु पुरुष का आहार, विहार और निहारादि क्रियाओं के नियम ही कुछ ऐसे हैं कि जिनसे स्वभावतः उनका शरीर स्वच्छ रहता है। इस के साथ ही साथ वह ब्रह्मचर्य अादि ब्रतों का भी पालन करता है इस कारण उसका शरीर भी अशुध
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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