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________________ धर्मार्थकामाध्ययन [२३] फिर गृहस्थ के वर्तनों में भोजन करने से पश्चालम तथा पुराकर्म ये दोनों दोप लगने की भी संभावना है। इसलिये साधुओं के लिये उनमें भोजन करना योग्य नहीं है ऐसा विचार कर निग्रंथ पुरुप गृहस्थ के वर्तनों में भोजन नहीं करते हैं। टिप्पणी-पुराकर्म तथा पश्चात्कर्म का खुलासा इसीग्रंथ के पांचवें अध्ययन में प्रथम उद्देशक की ३२ वी तथा ३५ वी गाथामें किया है। [१४] (पन्द्रहवां स्थान) सन की चारपाई, निवार का पलंग, लन की रस्सियों से बने हुए मचान तथा वेंत की आराम कुरसी श्रादि श्रासन पर बैठना या लोना (लेटना) साधु पुरुप के लिये अनाचीर्ण (अयोग्य) है। [२५] इसलिये तीर्थकरकी आज्ञा का पाराधक निग्रंथ मुनि उक्त प्रकार की चारपाई, पलंग, मचान अथवा वेंत की कुरसी पर नहीं वैठता है क्योंकि वहां पर रहे हुए सूक्ष्म जीवों का प्रतिलेखन वरावर नहीं हो सकता और साधु जीवन में विलासिता भा जाने की आशंका है। [२६] उक्त प्रकार के आसनों के कोनों में नीचे या आसपास अंधेरा रहा करता है इस कारण उस अंधेरे में रहने वाले जीव वरावर न दीखने से उनपर बैठते हुए उनकी हिंसा होजाने की आशंका है। इसलिये महापुरुषोंने इस प्रकार के मचान तथा पलंग आदि पर बैठने का त्याग करने की आज्ञा दी है। [१७] (सोलहवां स्थान) गोचरी के निमित्त गृहस्थ के घर बैठना योग्य नहीं है क्योंकि ऐसा करने में निम्नलिखित दोप लगने की संभावना है और अज्ञान की प्राप्ति होती है। .
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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