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________________ धर्मार्थकामाध्ययन क्योंकि ऐसा करने से विलासिता एवं परतंत्रता आती है। जहां देहभान, विलास एवं परतंत्रता आजाय वहां संयम एवं स्वावलंबन का नाश हो जाता है। 1 [8] ( प्रथम स्थान का स्वरूप ) समस्त जीवों के साथ संयमपूर्वक वर्तना यही उत्तम प्रकार की अहिंसा है और भगवान महावीर ने उसे १८ स्थानों में सब से पहिला स्थान दिया है । टिप्पणी-संयम ही श्रहिंसा का बीज है । श्रहिंसा का उपासक संयमी न रहे तो वह अहिंसा का पालन यथोचित रीति से नहीं कर सकता मन, - वचन और काय पर ज्यों २ संयम का रंग चढता जाता है त्यों २ साधक अहिंसा में आगे २ वढता जाता है ऐसा भगवान महावीरने कहा है 1 अहिंसा का पालन कैसे किया जाय ? ८७ [10] संयमी साधक इस लोक में जीव हैं उनमें से किसी को मारे नहीं, दूसरों से मरावे की प्रशंसा ही करे । जितने भी त्रस एवं स्थावर भी जानकर या गफलत में स्वयं नहीं, और न किसी मारनेवाले [११] ( हिंसा क्यों न करे उसका कारण बताते हैं : ) जगत के ( छोटे बडे ) समस्त जीव जीवित रहना चाहते हैं, कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता इस लिये इस भयंकर पापरूप प्राणिहिंसा को निर्बंथ पुरुष सर्वथा त्याग देते हैं । " + [१२] ( दूसरा स्थान ) संयमी अपने स्वार्थ के लिये या दूसरों के लिये, क्रोध से किंवा भय से, दूसरों को पीडा देनेवाला हिंसाकारी असत्य वचन न कहे न दूसरों द्वारा कहलावे और न किसीको असत्य भाषण करते देख उस की अनुमोदना ही करे | टिप्पणी- वास्तव में किसी भी प्रकारका असत्य बोलना संगमी साधक के लिये त्याज्यं ही है । संयमी को कैसी भाषा बोलनी चाहिये तत्संबंधी
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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