SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ दशवकालिक सूत्र [६] पूर्व के महापुरुपोंने वाल (शारीरिक एवं मानसिक शक्ति में अपक्व), व्यक्त (शारीरिक एवं मानसिक शक्ति में परिपक्व), अथवा वृद्ध (जराजीर्ण) अथवा रोगिष्ट के लिये भी जिन नियमों को अखंड एवं निदोप रूप से पालन करने का विधान कर उन के स्वरूपका जैसा वर्णन किया है, वह मैं अब तुम्हें कहता हूं, उसे तुम ध्यान पूर्वक सुनो। टिप्पणी-जिन स्थानों का वर्णन नीचे किया है उनका पालन प्रत्येक साधक को भले ही वह अवस्थामें बालक हो, युवा हो, वृद्ध हो रोगिष्ठ हो या नीरोग हो, कुछ भी क्यों न हो फिर भी करना अनिवार्य हैं क्योंकि ये गुण साधुत्व के मूल हैं। इन नियमों के पालनमें किसी भी साधु के लिये कैसा भी अपवाद नहीं है। चाहे जैसे संयोगों एवं परिस्थितियों में इन नियमों का परिपूर्ण पालन करना प्रत्येक मुनि का कर्तव्य है। [७] उस प्राचार के निम्नलिखित १८ स्थान है । जो कोई अज्ञानी साधक उन में से एक की भी विराधना करता है वह श्रमणभाव से भ्रष्ट हो जाता है । [4] (वे १८ स्थान इस प्रकार हैं:) छ व्रतों (पंच महानत तथा छट्ठा रात्रिभोजनत्याग) का पालन करना; पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा ब्रस इन पटकाय जीवोंपर संपूर्ण दया भाव रखना; अकल्प्य (दूपित) श्राहार पानी ग्रहण न करना; गृहस्थ के भाजन (बर्तन) में न खाना-पीना; उस के पलंग पर न बैठना; उस के आसन पर न बैठना; स्नान तथा शरीर की शोभा का त्याग करना । टिप्पणी-साधु को शरीर की शोभा बढाने के लिये स्नान, सुगंधित तैलादि लगाना अथवा टापटीप करना उचित नहीं है। गृहस्थ के बर्तन, पलंग, आसन अथवा अन्य साधनों को अपने उपयोगमें लाना ठीक नहीं है
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy