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________________ .पढेपणा मुझ पर अनुग्रह कर मेरे इस आहारमें से थोडासा भी ग्रहण करें तो मैं संसारसमुद्र से पार हो जाऊं"। [११] इस प्रकार विचार कर सब से प्रथम प्रव्रज्या (दीक्षा) वृद्ध को, उसके बाद उस से उतरते मुनि को, इस प्रकार क्रमपूर्वक सब साधुओं को आमंत्रण करे। आमंत्रण देने पर जो कोई साधु आहार करने के इच्छुक हो उन सब के साथ बैठकर मुनि आहार करे। टिप्पणी-सव से पहिले दीक्षा वृद्ध मुनि को आमंत्रण देने का विधान विनयधर्म की रक्षा की दृष्टि से किया गया है। [१६] यदि कोई भी साधु आहार का इच्छुक न हो तो संयमी स्वयं अकेला ही गग द्वेप दूर कर, चौडे मुखवाले प्रकाशित वर्तन में यत्नापूर्वक तथा नीचे न फैले (गिरे) इस रीति से आहार करे। [१७] गृहस्थ के द्वारा अपने लिये बनाया हुआ एवं विधिपूर्वक प्राप्त किया हुआ वह भोजन तीखा, कडुत्रा, कसैला, खट्टा, मधुर अथवा नमकीन चाहे जैसा भी क्यों न हो किन्तु संयमी भिनु उसको मधु या घी की तरह से प्रारोगे (ग्रहण करे)। टिप्पणी-इस गाथामें 'तोखा' शब्द का प्रयोग किया है इसका यह अर्थ नहीं है कि 'तोखा पदार्थ' ग्रहण करना ही चाहिये। संयमी साधु के लिये अति खट्टा, अति नमकीन और अति तीखे भोजन त्याज्य कहे गये हैं फिर भी यदि कदाचित भूलमें ऐसे पदार्थ मिक्षामें मिल जाय तो मनमें ग्लानि लाये बिना ही वह समभावपूर्वक उनको ग्रहण करे। . . शहद और घी का उदाहरण देनेका कारण यह है कि जिस प्रकार शहद एवं घी को सब कोई प्रेमपूर्वक रूचि से खाते है उसी प्रकार
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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