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________________ ६८ दशवकालिक सूत्र तरफ रखकर मार्ग संबंधी दोपों के निवारण के लिये) ईपथिकी क्रिया को प्रतिक्रमे अर्थात् कायोत्सर्ग करे । टिप्पणी-अपने स्थानमें प्रवेश करते हुए मुनि 'निसीही' कह कर गुरु आदि पूज्य जनों को 'मत्येण वंदामि' कह कर अभिवंदन करते हैं। [१] उस समय वह साधु आहार लेने के लिये जाते हुए अथवा ___वहां से लौटते हुए जो कुछ भी अतिचार हुए हों उन सव को क्रमपूर्वक याद करे। Peo] इस प्रकार कायोत्सर्ग कर प्रायश्चित्त ले निवृत्त होने के बाद सरल, बुद्धिमान तथा शांत चित्तवाला वह मुनि श्राहारपानी की प्राप्ति किस तरह हुई आदि सब बातों को व्याकुलतारहित होकर गुरु के समक्ष निवेदन करे। [s] पहिले अथवा बाद में हुए दोपों की कदाचित उस समय बरावर आलोचना न हुई हो तो फिर उनका प्रतिक्रमण करे और उस समय कायोत्सर्ग कर (दहभान भूलकर) ऐसा चितवन करे कि:[१२] अहा ! श्री जिनेश्वर देवोंने मोक्ष के साधनरूप साधुपुरुप के . शरीर को निवाहने के लिये कैसी निर्दोपवृत्ति बताई है। टिप्पणी-ऐसी निर्दोष भिक्षावृत्ति से संयम के आधारभूत इस शरीर का भी पालन होता है और मोक्ष की साधना में भी कुछ वाधा नहीं पड़ती। [१३] (कायोत्सर्गमें उपरोक्त चिन्तवन कर) नमस्कार का उच्चारण कर कायोत्सर्ग से निवृत्त होकर वह वादमें श्री जिनेश्वर देवों की स्तुति (स्तुति रूपलोगस्स का पाठ) करे और फिर कुछ स्वाध्याय कर मिनु क्षणवार विश्राम ले। [४] विश्राम लेकर (निर्जरारूपी) लाभ का इच्छुक वह साधु अपने कल्याण के लिये इस प्रकार चिन्तवन करे किः " दूसरे मुनिवर
SR No.010496
Book TitleAgam 42 Mool 03 Dashvaikalik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj
PublisherSthanakvasi Jain Conference
Publication Year1993
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size8 MB
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