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________________ प्रथम : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व, 'विद्वान कदाचित ही एक मत होते हैं । दूसरे शब्दों में हम इसे इस प्रकार कह सकते है। 'नैको मुनिर्यस्य मतं न भिन्नम् '। अर्थात् एक भी मुनि ऐसा नहीं है, जिसका मत भिन्न नहीं है। किन्तु जब काव्य वैशिष्ट्य (महत्त्व ) के सन्दर्भ में इस सूक्ति की व्याख्या करते हो, तो यह सूक्ति असहाय दिखाई पड़ती है अर्थात् इस सूक्ति का प्रभाव लोप हो जाता है। क्योंकि एक भी विद्वान, मुनि दिखाई नहीं देता, जिसने काव्य वैशिष्ट्य के प्रतिपादन में सन्देह किया हो । अपितु प्रत्येक ने उसके महत्त्व के प्रति अपना दृढ़ समर्थन किया है। यह महत्त्वपूर्ण है और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण यह तथ्य है कि पाश्चात्य जगत के साथ आचार्य एवं अरस्तु के गुरु प्लेटो ने भ्रमवश (दृढ़ता पूर्वक नहीं क्योंकि बाद में इन्होंने इसे सुधार लिया) काव्य के एकांगी एवं असुन्दर पक्ष को काव्य का उद्देश्य मानकर अपने देश वासियों से इसे त्यागने का जो सन्देश दिया था। वह स्थापित होने के पूर्व ही उन्हीं के शिष्य अरस्तु द्वारा खण्डित होकर हवाओं में विलीन हो गया। भला हो अरस्तु का, जिसने काव्य को 'जीवन का आदर्श चित्रण' कहकर उसके वैशिष्ट्य का प्रतिपादन कर पाश्चात्य जगत् के माथे पर कलंक का टीका लगने से पूर्व ही उसे मिटा दिया। वरन् कलंक का जो टीका लगता, उससे न केवल काव्य जगत, अपितु सम्पूर्ण समाज निश्चित ही दयनीय अवस्था को प्राप्त होता, क्योंकि प्लेटो काव्यशास्त्र का ही नहीं, ज्ञान की अनेकानेक शाखाओं का अधिष्ठाता भी थे। १९
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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