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________________ सप्तम् मुरिच्छेद : श्री जयशेरवरसूरि कृत जैनकुमारसम्भव एवं महाकवि 24 कालिदास कृत कुमारसम्भव का तुलनात्मक अध्ययन विप्रलम्भ शृङ्गार का एक उदाहरण त्रिभागशेषासु निशासु चक्षणं निमील्य नेत्रे सहसा वयवुध्यत्। क्व नीलकण्ठ! व्रजसीत्यलक्ष्यवागसत्यकण्ठार्पितवाहुबन्धना।। जयशेखर ने काव्य में वात्सल्य, भयानक, हास्य तथा शान्त रसों का आनुषंगिक रूप में पल्लवन किया है। शिशु ऋषभदेव की तुतली वाणी, लड़खड़ाती गति अकारण ही लोगों को हँसने के लिए बाध्य करती है। वह शिशु दौड़कर पिता से छिपट जाता है। पिता शिशु के अंग स्पर्श कर आत्म विभोर हो जाते है उनकी आँखे हषातिरेक से बन्द हो जाती है और वे ताततात कहकर पुकारने लगते है अव्यक्त मुक्तं ..... तात तातेति जगाक्ष्माभि।" यथेष्ट चित्रण है प्रमोदवाष्पाकुललोचना सा न तं ददर्श धणमग्रतोऽपि। परिस्पृशन्ती कर कुंडमक्तेन सुखान्तरं प्राप किमप्यपूर्वम्।।७२ अर्थात् पार्वती अपने सामने होते हुए भी उस पुरुष को कुछ समय के लिए नहीं देख सकीं, जो कि हर्ष के आसुओं से भरी हुई नेत्रों वाली होकर किसलय सरीखे कोमल हाँथों से पुत्र का स्पर्श करती हुई अनिर्वचनीय, अपूर्व एवं अधिक सुख को पा लिया स्पष्ट है कि वात्सल्य वर्णन में भी कुमार-सम्भव की जैनकुमारसम्भव से श्रेष्ठता असन्दिग्ध है। हास्य रस के वर्णन प्रसंग में जैनकुमारसम्भव के पाँचवा अध्याय का इक्तालीसवाँ श्लोक है- जिसमें २४७
SR No.010493
Book TitleJain Kumar sambhava ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShyam Bahadur Dixit
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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