SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूज्य गुरुदेव जेवा कोईक विरल मानवना हाथै ज बने. पूज्य गुरुदेवनी बहुश्रुतता गूढार्थदीपिकामां खूब झळके छे; तत्वार्थविवरणमां भरेलो भाव पूज्य गुरुदेवे अत्य.। प्रस्फुट करी बतायो छ, एमांनी प्रत्येक बाबतो उपर तेओश्रीए गूढार्थदीपिकामां खूब प्रकाश पाथयों - छ, सुंदर अने सरल संस्कृत भाषामां गहन तत्वोनी तेओश्रीए सरस छणावट करी छे. न्यायशास्त्रमा अति विद्वान पंडितोने पण जणाती तयार्थविवरणनी कठिनता दूर करीने मांना गूढ तलो पूज्य गुरुदेवे सरळ रीते अने रोचक भाषामा विस्तारयी समजाव्या छ, मूल ग्रंथनो यथार्थ भाव गूढार्थदीपिकामा प्रगट थयो छे अने तत्त्वज्ञाननी अनेक बाबतोनुं विवरण रसमय बन्यु छे, न्यायशास्त्रविषयक निरन्तर सुंदर अभ्यास. विशाल पांचन अने सतत तत्वविचारणाने परिणामे एक कठिण कार्य तेओश्री पूज्यपादश्री गुरुभगवंतनो असीम कृपादृष्टिथी सुशक्य वनावी शया छे. "पूढार्थदीपिका" रचाती हती ते समय दर यान बीजा पण वे ग्रंथो पू. गुरुमहाराजश्रीए रच्या छे. 'पर्युषणपर्वकल्पप्रभा' अने 'पर्युषण पर्वकल्पलता' नामना आबे ग्रंथोथी जनता अज्ञात नथी. पू. गुरुमहाराजश्रीए सर्वप्रथम " स्थाद्वापपिंदु" नामनो ३००० श्लोकप्रमाण ग्रंथ रच्यो छे. त्यारबाद परमपूज्य न्यायाचार्य न्यायविशारद उपाध्यायजी यशोविजयजी महाराजश्रीजीकृत "न्यायखंडनखा" अपरनाम "महावीरस्त" ग्रंथनी "महावीरस्तवकल्पलनिका" नामनी २५००० पच्चीस हजार श्लोकप्रमाण एक सुंदर टीका रची छे. तदुपरांत तेओश्रीए पूज्यपाद श्री सिद्धसेनदिवाकररचित "सम्मतितक" नामना द्रव्यानुयोगमय-अति प्राचीन-अतिविषम जैन न्याय ग्रंथ उपर “सम्मतितकमहार्णवावतारिका" नामनी अनुपम लधु टीका १६००० श्लोकप्रमाण रची छे. "सातितर्क " नामना प्राचीन ग्रंथमा अल्प शब्दोमां समायेला अतिमूढ भावो ओश्रीए टीकामां सरलताथी स्फुट करी पताच्या छे. सन्मतितकनी प्राचीन भाषाशैली अभ्यासीने कठिन पडे तेस होवाथी वर्तमान न्यायशैलीमा पूज्य गुरुमहाराजश्रीए ते ग्रंथ पर सुंदर तेमज सर्वमूल श्लोकगत दरेक पदोना रहस्यभूत अर्थने प्रदर्शन करनारी विस्तृत टीका रची विद्यापिपासुओने सरलता करी आपी छे. आवी रीते सुंदर साहित्य जैन समाजने चरणे धरीने पूज्य गुरुभगवते. जैन माहित्य तेमज जैन समाजनी अपूर्व सेवा बजावी छे. एटलं ज नही पण अनेक पाठशाळाओ, उपाश्रयो. भव्य जिन मंदिरो, जीर्णोद्धार विगेरे अनेक स्थलोए अनेक शुभ कार्यों तेओश्रीए सदुपदेश द्वारा कराया छे. श्री सिद्धगिरिजी आदि अनेक तीर्थसंघ कढावी भाग्यवंत श्रायकोने संधपति विरुदवई अलंकन कर्या छ. सौराष्ट्रथी मांडीने मारवाड, मेवाड, माळवा सुधी विहार करीने " जिनवाणी "नो सुंदर प्रचार करीने ते प्रोत्रीए शासननी अनुपम सेवा बजावी छ ।
SR No.010492
Book TitleTattvarthadhigama Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorVijaydarshansuri, Yashovijay
PublisherMotiji Kapurchand Tarachand
Publication Year1955
Total Pages472
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy