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________________ 1 श्रवणबेलगोल का महत्व ने इन लेखो के साहित्य सौन्दर्य व ऐतिहासिक महत्व की ओर विद्वत्समाज का ध्यान आकर्षित किया। उक्त संग्रह का दूसरा संस्करण सन् १९२२ मे प्राक्तनविमर्ष - विचक्षण रावबहादुर श्री आर० नरसिंहाचारजी ने निकाला | इन्होने श्रवणवेल्गोल के सब लेखो की सूक्ष्म रूप से जाच की । ५०० लेखो का संग्रह किया तथा अपनी अग्रेजी की पुस्तक 'श्रवणवेल्गोल' में सब लेख कन्नडी भाषा में छपवाये । उनकी रोमन लिपि की तथा अग्रेजी में अनुवाद किया । ये लेख प्राय समस्त प्राचीन दिगम्बर जैनाचार्यो के कृत्यों के प्राचीन ऐतिहासिक प्रमाण है । इनसे पता चलता है कि यहा के जैनाचार्यो की परम्परा दिग्दिगन्तरो मे प्रख्यात थी और जैनाचार्यों ने वडे-बडे राजा, महाराजाओ से सम्मान प्राप्त किया था । साथ ही इनसे यह भी मालूम होता है कि उन आचार्यो ने किन-किन राजाओ को जैनधर्म की दीक्षा दी, किस-किस राजा, महाराजा, रानी, राजकुमार, सेनापति, राजमंत्री तथा किस-किस वर्ग के मनुष्यो ने आकर धर्म आराधना की । ये शिलालेख इस बात के साक्षी है कि जैनियो का साम्राज्य देश के लिए कितना हितकर था और उनके सम्राट् किस प्रकार धर्म साम्राज्य स्थापित करने के लिए लालायित थे । इन शिलालेखो में भगवान महावीर से लेकर आचार्यो की वशावली तथा कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वाति, समन्तभद्र, शिवकोटि, पूज्यपाद, गोल्लाचार्य, त्रैकाल्ययोगी, गोपनन्दि, प्रभाचन्द्र, दामनन्दि, जिनचन्द्र, वासवचन्द्र, यश कीर्ति, कल्याणकीर्ति, श्रुतकीर्ति, वादिराज, चतुर्मुखदेव आदि आचार्यो का परिचय मिलता है ।
SR No.010490
Book TitleShravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkrishna Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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