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________________ जैन धर्मावलम्बी। इतिहासज्ञ इस बात को स्वीकार करते है कि ईसा से १२वी शताब्दी तक दक्षिण भारत मे जैनधर्म सबसे अधिक शक्तिशाली, आकर्पक और स्वीकार्य धर्म था। उसी समय वैष्णव आचार्य रामानुज ने विष्णुवर्द्धन को जैनधर्म का परित्याग कराकर वैष्णव बनाया था। ____ काचीपुर के एक पल्लवनरेश महेन्द्रवर्मन (प्रथम) राज्यकाल ६०० से ६३० ई, पाड्य, पश्चिमी चालुक्य, गग, राष्ट्रकूट, कलचूरी और होयसल वश के बहुत से राजा जैन थे। महेन्द्रवर्मन के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि वह पहले जैन थे, किन्तु घरमसेन मुनि जब जैनधर्म को त्याग कर शव हो गए तो उनके साथ महेन्द्रवर्मन भी शैव हो गया। शव होने पर धरमसेन ने अपना नाम अप्पड रखा । ____ आठवी शताब्दी का एक पाड्य नरेश नेदुमारन अपरनाम कुणपाड्या जैनधर्मावलम्बी था और तामिल भाषा के शव अथो के अनुसार शैवाचार्य सम्बन्ध ने उससे जैनधर्म छुडवाया। ___ कर्नाटक में बनवासी के कादम्ब शासको में कुकुस्थवर्मन (४३० से ४५० ई ) मृगेशवर्मन (४७५ से ४६० ई), रविवर्मन (४६७ से ५३७) और हरीवर्मन (५३७ ले ५४७) यद्यपि हिंदू थे तथापि उनकी बहुत-सी प्रजा के जैन होने के कारण वे मी यथाक्रम जैनधर्म के अनुकूल थे। कुकुस्थवर्मन ने अपने एक लेख के अन्त में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को नमस्कार किया है। उसके पोते मृगेशवर्मन ने वैजयन्ति में अर्हतो के अर्थ बहुत-सी भूमि प्रदान की । अन्य और समय में कालवग ग्राम को तीन भागो में विभक्त किया। पहला भाग उसने जिनेन्द्र भगवान को अर्पण किया, दूसरा भाग श्वेतपथवालो और तीसरा भाग निम्रन्यो को पालासिका (हालसी) में रविवर्मन ने एक नाम इसलिए दान में दिया कि उसकी आमदनी मे हर वर्ष जिनेन्द्र भगवान् का उत्सव मनाया जाय । हरिवर्मन ने भी जैनियो को बहुत दानपत्र दिये। पश्चिमी चालुक्य वश के शासक जैनधर्म की सरक्षकता के लिए
SR No.010490
Book TitleShravanbelogl aur Dakshin ke anya Jain Tirth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkrishna Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1953
Total Pages131
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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