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________________ . (२४). विनीयमानो गुरुणा हि नित्य सुरेन्द्रलीला लभते नरेन्द्र ॥ निगृहतो वाधकरान प्रजानां भृत्यांस्ततोऽन्यानयतोऽभिवृद्धिम् । कीर्तिस्तवाशेषदिगन्तराणि, व्याप्नोतु यन्दिस्तुतकीर्तनस्य ॥ कुर्याः संदा संवृतचित्तवृत्तिः फलानुमेयानि निजहितानि । गूढात्ममंत्रः परमंत्रभेदी भवत्यगस्थः पुरुषः परेषाम् ॥ ... ..... (चंद्रप्रभ ४ सर्ग ३६-१२) अर्थ-हे पुत्रं उत्कृष्ट प्रमाववाली विभूतियोंको चाहते हो तो अपने. जनों (प्रमा) के कमी दुःखित मत करो, क्योंकि नीतिज्ञ कहते हैं कि उन. सम्पत्तिओंके आनेका प्रथम कारण जनोंका अनुराग ही है। . (प्रनानुरंजन शासन शासन है, नहीं तो सब निश्कासन हैं) [तथा सम्पत्तिओंका. समागम. निर्यसन रानाके होता है । __.. निर्व्यसन नरेशके सम्पत्तिोंका आगमन होता है, तथा रानाका निन्यतनत्व, अपने परिवारके वश करने पर ही होता है, अपने परिवारके वशमें न करनेसे व्यसन (दुःख गरीय (अतिशय मड़ा) होता है। अपने परिवारके वशमें रखनेकी इच्छा रखनेवाला राजा कृतज्ञताके पारको प्राप्त होवे । क्योंकि दूसरे २ गुणों से सहित होने पर भी कृतन (किये हुए ऐशानको न मानने वाला समस्त लोकको दुःखित करता है। कलिशालके दोषोंसे रहित हे राजपूत्र ! तुम धर्माविरुद्ध धन, कामकी वृद्धिको प्राप्त करो क्योंकि युक्तिसे धर्म, अर्थ, कामको सेवन करनेवाला नरेश इस लोक, पालोक दोनोंको सिद्ध करता है । अपने प्रमादको नष्ट कर अपने तमाम कार्य वृद्धोंकी अनुमति से सदेव करो क्योंकि वृहस्पतिसे विनीयमान ( कहा हुवा ) इन्द्र, सुरेन्द्र, लीलाको प्राप्त होता है, अथवा वृद्धसे विनीयमान राजा इन्द्रलीलाको प्राप्त होता है। प्रनाको बाधा करनेवाले ऐसे राज्य के 'नौकरोंको निग्रह, और प्रजाकी उन्नति करनेशले ऐसे राज्य नौकरोंका अनुयह करने में वन्दिजनोंसे स्तुति होनेवाले ऐसे रानाकी (तुम्हारी ) कीर्ति सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त ... होवेगी । (इस श्लोकके अनुपार वर्तमान नौकरशाही जो कि प्रजाको वाधा कर रही है, . उसके लिये निग्रह स्वरूप असहयोग जिसका प्राण अहिंसा है: करना जैन समाजको धर्म, ... कर्तव्य एवं च.शुमंनीति प्रतीत होती है। ....... हमेशा अपनी चित्तवृत्तिको प्रकाशित मत करो ; जिससे कि तुम्हारे विचार केवल कार्यके फलसे अनुमान किये जाय; क्योंकि गूढ़ विचारवाला पुरुष जो है सो दूसरेके विवा रको जान सकता है किन्तु दूसरे लोग उसकी मंत्रणाओंको नहीं जान सकते। .... :प्रिय पाठक वर्ग विचारियें कितनी बहीं चड़ी हुई उच्चकोटिकी राजनीति है, यदि . :
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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