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________________ (४४) है, गुणोंकी अपेक्षा ध्रुव ( अविनाशी ) है। वे महाशय अपनी समझमें भूल करते हैं। क्योंकि द्रव्योंकी पर्यायें जैसे किसी कारण अनित्य अथवा उत्पाद व्ययवाली है उसी प्रकार वे प्रोपवाली मी - किसी अपेक्षासे हैं । और द्रयोंके गुण जिस प्रकार ध्रौव्यात्मक यानो नित्य मालुम होते हैं। वे ही गुण किसी तरह अनित्य मी दीखते हैं अवा इसको इस तरह कहना चाहिये कि उत्पादमें व्यय और प्रौव्य निवास करते हैं। और व्ययमें भी उत्पाद उत्पाद तथा प्रौव्य रहते हैं एवं ध्रौव्यमें भी उत्साद, व्यय अवश्य पाये माते हैं। यह बात इस तरह सिद्ध होती है कि यदि पर्यायमें कुछ मी नित्यता न हो तो वह क्षणभर मी न ठहर सकेगी और इस प्रकारसे पर्याय ही न रह सकेगी। पर्यायमें कुछ न कुछ नित्यता या स्थिरपन है तभी तो आम कभी हरा और कमी पीला दिखाई देता है। मनुष्य कमी बच्चा और कमी युवा दृष्टिगोचर होता है । . अन्यथा किसी भी रूप में न दीखेगा । इसी प्रकार गुण मी यद्यपि किसी अपेक्षासे श्रौव्यागक है परन्तु किसी अपेक्षासे उत्पादन्यय स्वरूप परिणामी मी है क्योंकि यदि ऐसा न हो तो गुणोंकी सदा एकसी ही हालत दीखनी चाहिये उसमें किसी भी प्रकार हेरफेर न होनी चाहिये। आमका रूपगुण सर्वदा हरा या पीला ही रहना चाहिये, बदलना न चाहिये, रस मी खट्टर या मीठा ही सर्वदा रहना चाहिये किंतु ऐसा होना प्राकृतिक नियमके विरुद्ध है। अतएर गुण जिस प्रकार सामान्यतया अपरिणामी (नित्य ) हैं । विशेषतयों वे. ही परिणामी मी अवश्य हैं। इस समी जंजालका यही सारांश है कि 'अनंत गुण तथा अनंत पर्यायवाली द्रव्य होती है । इसीको दूसरे ढंगसे ऐसा कह सके हैं कि उत्पत्ति, नाश तथा स्थिर दशको धारण करनेवाला ही द्रव्य है।। अत्र द्रव्यका लक्षण तो पूर्णतया प्रमाणरूपी कांटेपर तुल चुका जिससे कि हमको प्रकृत विषयपर विचार करनेका मलसर मिल गया । हमको प्रकरणानुसार प्रथम ही यह विचारना है कि वे द्रव्य कितनी हैं। और कैसे हैं ? । तत्पश्चात उसी प्रकरणकी अन्य शंका उपास्थित करके उनका निराकरण करेंगे। जिस समय हम उपयुक्त प्रश्नको हल करनेके लिये अपनी प्रतिमाको काममें लेते । हैं, उस समय हमको ज्ञात हो जाता है कि इस विशाल संसारस्थलमें दो प्रकारके द्रव्य र ही उलग होते हैं । अर्थात् संसार में जितने भी अनंत पदार्थ हैं वे दो- जातिके हैं-एक तो चेतन हैं दुसरे अचेतन । जिन पदार्थों में जानने देखनेकी शक्ति है उनको चैतन्यदशासे सहित होनेके' करण चेतन कहते हैं इनकी हो 'जीव' शनसे पुकारते हैं । और जिनमें मानने, देखने,
SR No.010486
Book TitleShaddravya ki Avashyakata va Siddhi aur Jain Sahitya ka Mahattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMathuradas Pt, Ajit Kumar, Others
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1927
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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