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________________ संस्कृत के जन वैयाकरण एक मूल्याकन ७१ नुशासकी ने विभिन्न प्रकार से अपनी-अपनी सज्ञाओ के साकेतिक रूप दिये है। यत्र-तत्र एकता होने पर भी विभिन्नता प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। यही तो कारण है कि जितने विशिष्ट वयाकरण हुए, उनकी रचनाए अलग-अलग व्याकरण के रूप मे अभिहित हुई। विवेचन शैली की विभिन्नता के कारण एक ही संस्कृत भाषा मे व्याकरण के कई तन्त्र प्रसिद्ध हुए। ७ हेमचन्द्र की सर्वत्र व्यावहारिक प्रवृत्ति है। इन्होंने स्वर तथा व्यजन विधान सशाओ का विवेचन करने के अनन्तर विभक्ति, पद, नाम और सज्ञाओ का बहुत ही वैज्ञानिक निरूपण किया है । पाणिनीय व्याकरण मे इस प्रकार के विवेचन का ऐकान्तिक अभाव है । पाणिनि तो वाक्य की परिभाषा देना ही भूल गये है। परवर्ती वयाकरण कात्यायन ने सभालने की कोशिश अवश्य की है, पर इन्होने जो परिभाषा एकतिड्वाक्यम्' दी है, वह भी अधूरी ही रह गई है। बाद के पाणिनीय तन्तकारो ने इसे व्यवस्थित करना चाहा है, किन्तु वे भी एकतिवाक्यम् के दायरे से दूर नहीं हो सके है। फलत इनकी वाक्य परिभाषा सीधा स्वरूप ले कर उपस्थित नहीं हो सकी है। और उसकी अपूर्णता ज्यो-की-त्यो बनी रही। किन्तु हेम ने वाक्य की बहुत स्पष्ट परिभाषा दी है "सविशेषमाख्यात वाक्यम् १।१।२६" त्यायन्त पदमाख्यात साक्षापारम्पर्येण वा यान्याख्यातविशेषणानि त प्रयुज्यमानरप्रयुज्यमान सहित प्रयुज्यमानमप्रयुज्यमान वा आख्यात वाक्यसज्ञ भवति।" अर्थात् मूल सूत्र मे सविशेषण आख्यान को वाक्य सज्ञा वतलाई गई है। यहा आख्यान के विशेषण का अर्थ है अव्यय, कारक, संज्ञा, विशेषण और क्रियाविशेषण का साक्षात् या परम्परया रहना। इस सूत्र के वृत्यश से स्पष्ट है कि प्रयुज्यमान अथवा अप्रयुज्यमान विशेषणो के साथ प्रयुज्यमान अथवा अप्रयुज्यमान आख्यान ही की वाक्य मे प्रधानता रहती है। यहा विशेषण शब्द से केवल सज्ञा विशेषण को ही ग्रहण नही किया गया है, अपितु साधारणत प्रधान मर्य मे इसे ग्रहण किया है। 'वैयाकरणो का यह सिद्धान्त भी है कि वाक्य मे अख्यात अर्थ ही प्रधान होता है। हेम ने अपनी वाक्य परिभापा का सम्बन्ध पदायुविभक्त्येक वाक्ये रस्न सी बहत्व' २।१।२१ सूत्र से भी माना है। अत पाणिनीय तन्तकारी की अपेक्षा हेम की वाक्य-परिमापा अधिक तक सगत है। ८ हेम ने सात सूत्रो मे अव्यय सजा का निरूपण किया है। इस निरूपण मे सबसे बड़ी विशेषता यह है कि निपात सज्ञा को अव्यय सज्ञा मे ही विलीन कर लिया है। इन्होने चादि को निपात न मान कर सीधा अव्यय मान लिया है। यह सक्षिप्तीकरण का एक लघुतम प्रयास है। इत् प्रत्यय और संख्यावत् समाओ का विवेचन भी पूर्ण है। हेम ने अनुनासिक' का अर्थ व्युत्पत्तिगत मान लिया है, अत इसके लिए पृथक् सूत्र बनाने की आवश्यकता नही समझी है । सज्ञा प्रकरण की हम की सज्ञाए शब्दानुसारी है, किन्तु आये वाली कारकीय ससाए अर्थानुसारी हैं।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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