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________________ ४६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा योन्य है। यहाँ ऐसा विदित होता है कि प्रामृत से तात्पर्य महाकर्मप्रकृति प्राभृतसे था जिसके रचयिता आ० पुष्पदन्त तथा भूतवाल माने जाते है (प्रथम-द्वितीय शती) । इसी का दूसरा नाम पट्खण्डागम प्रसिद्ध है। इसी का भागविशेप 'वन्ध' या महावन्ध (महायवल सिद्धान्तशास्त्र) था जिसके अध्ययन से यहाँ अभयनन्दी का तात्पर्य ज्ञात होता है, अर्थात् उस समय भी विद्वानो मे प्रामृत या पट्खण्डागम से पृथक महावन्ध का अस्तित्व था और दोनो का अध्ययन जीवन का आदर्श माना जाता था । 'सटीकमधीते' मे जिस टीका का उल्लेख है वह धवला टीका नही हो सकती क्योकि उसकी रचना वीरसेन ने ८१६ ई० मे की थी। श्रुतावतार के अनुसार महाकर्मप्राभृत पर आचार्य कुन्दकुन्द ने भी एक बडी प्राकृत टीका लिखी थी जो इस समय अनुपलब्ध है । सम्भवत वही टीका प्रामृत और बन्धके साथ पढी जाती थी। इनके स्थान पर पाणिनि सूत्रके उदाहरणो मे किसी समय इष्टि, पशुवन्ध, अग्नि, रहस्य नाम शतपथ ब्राह्मण के तत्तद् काण्डो का अध्ययन विद्या का आदर्श माना जाता था। देवनन्दी ने सूत्र ११४।३४ मे जिन श्रीदत्त आचार्यका उल्लेख किया है उन्हे कुछ विद्वान् काल्पनिक समझते है, परन्तु अभयनन्दी की महावृत्ति से सूचित होता है कि श्रीदत्त कोई अत्यन्त प्रसिद्ध वैयाकरण थे जिनका लोक मे प्रमाण माना जाता है। 'इतिश्रीदत्तम्,' यह प्रयोग 'इतिपाणिनि' के सदृश लोकप्रसिद्ध था। इसी प्रकार तच्छीदत्तम्' 'अहोश्रीदत्तम् प्रयोग भी श्रीदत्त की लोकप्रियता और प्रामाणिकता अभिव्यक्त करते है (श्रीदत्तशब्दो लोके प्रकाशते, महावृत्ति १।३।५) । सून ३।३।७६ पर तेन प्रोक्तम्' के उदाहरण मे अभयनन्दी ने श्रीदत्त के विरचित ग्रन्थ को श्रीदत्तीयम् कहा है। इससे शात होता है कि श्रीदत्त का बनाया कोई ग्रन्थ अवश्य था। ११४४ की वृत्ति मे 'शरद मथुरा रमणीया, माम कल्याणो कापी' ये दोनो उदाहरण अभयनन्दी की मौलिकता सूचित करते हैं। पाणिनि मूत्र 'कालावनोरत्यन्तसयोगे' (२।३।५) की काशिका वृत्ति मे मास कल्याणी' उदाहरण तो है किन्तु 'मास कल्याणी काची' यह ऐतिहासिक सूचना अभवनन्दी ने किसी विशेष स्रोत से प्राप्त की थी। जिस काचीपुरी के मासव्यापी उत्सवो का विशेष शोभा की ओर इस उदाहरण मे सकेत हैं वह महेन्द्रवर्मन्, नरसिंह वर्मन् आदि पल्लव नरेशो की राजधानी के सम्बन्ध मे होना चाहिए । अतएव सप्तम ती से पूर्व यह उदाहरण भाषा मे उत्पन्न न हुआ होगा। सूत्र ४१३।११४ की वृत्ति मे अभयनन्दी ने माध के 'सटाछटाभिन्न धनेन विभ्रता ' एलोन का हरण दिया है । माघ के दाद। सुप्रभदेव वर्मलात के मत्री थे जिसका एकजिनालख ६२१ ई० का पाया जाता है । अतएव भाव का समय सप्तम शती ५.ा इन होना चाहिए। इसके बाद ही अभयनन्दी ने महावृत्ति का निर्माण किया होगा। मुत्र ११४६६ ५२ 'चन्द्र गुनसभा' उदाहरण तो पाणिनीय परम्परा में माल होता है किन्तु उसके माय काशिका मे जो 'पुष्पमित्रसभा' दूसरा उदाहरण
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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