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________________ संस्कृत के जैन वैयाकरण एक मूल्यांकन ४७ है उसकी जगह महावृत्तिकारने 'सातवाहनसभा' उदाहरण रखा है । उसी प्रकार काशिका (२२४१२३) मे केवल 'काष्ठसभा' उदाहरण है, किन्तु अभयनन्दी ने 'पाषाणसभा और पक्वेष्टकासभा' ये दो अतिरिक्त उदाहरण दिये है । कहीं-कही अमयनन्दी ने काशिका की अपेक्षा भाष्य के उदाहरणो को स्वीकार किया है । जैसे सूत्र १|४|१३७ मे ओदालकि पिता, ओद्दालकायन पुत्र' यह भाष्य का उदाहरण था. जिसे बदलकर काशिका ने अपने समय के अनुकूल आर्जुन पिता, अर्जुनायन पुत्र ' ( काशिका २२४४६६ ) यह उदाहरण कर दिया था । 'आर्जुनायन' का शिकाकार के समय के अधिक सन्निकट था जैसा कि समुद्रगुप्त की प्रयागस्तम्भ प्रशस्ति मे आर्जुनायनगण के उल्लेख से ज्ञात होता है | कही कही महावृत्ति में काशिका की सामग्री को स्वीकार करते हुए उससे अतिरिक्त भी उदाहरण दिये गये है जो सूचित करते है कि अभयनन्दी की पहुंच अन्य प्राचीन वृत्तियो तक थी, जैसे सूत्र ११४८३ की वृत्ति मे 'येरावति' तो काशिका मे भी है किन्तु 'विपाट्चक्रमिदम् ( विपाशा और चक्रभिद् नदी का सगम) उदाहरण नया है । ऐसे ही सून २४२६ मे मयूरिकावन्ध, कोचबन्ध, चक्रवन्ध, कूटवन्ध उदाहरण महावृत्ति और काशिका मे समान है, पर चण्डालिकावन्ध और महिपिकवन्ध उदाहरण महावृत्ति मे नये हैं | काशिका का मुष्टिबन्ध महावृत्ति मे दृष्टिबन्ध और चोरकवन्ध चारकबन्ध हो गया है । सुत्र १।३।३६ मे भी चारकबन्ध पाठ है | सूत्र ५४६ पान देशे' की वृत्ति मे काशिका के 'क्षीरपाणा उशीनरा' को 'क्षीरपाणा आन्ध्रा' और 'सोवीरपाणा वालीका' को 'सोवीरपाणा द्रविणा ' कर दिया है । 'द्रविणा ' द्रमिल या द्रमिड का रूप है । ये परिवर्तन अभयनन्दी ने किसी प्राचीन वृत्ति के आधार पर या स्वय अपनी सूचना के आधार पर किये होगे । आन्ध्र देश मे दूध पीने का और तमिल देश मे काजी पीने का व्यवहार लोक मे प्रसिद्ध रहा होगा । कहीं-कही महावृत्ति मे कठिन शब्दो के नये अर्थ सग्रह करने का प्रयास किया है इसका अच्छा उदाहरण सूत्र २२४।१६ का 'अपडक्षीण' शब्द है । पाणिनि सूत्र २४७ की काशिकावृत्ति मे 'अषडक्षीणो मन्त्र' उदाहरण है अर्थात् ऐसा मन्त्र या परामर्श जो केवल राजा और मन्त्री के बीच मे हुआ हो (यो द्वाभ्यामेव क्रियते न बहुभि ) । 'पटुकर्णो भिद्यते मन्त्र' के अनुसार राजा और मुख्य मन्त्री की 'चार आखो' या 'चार कानो' से वाहर जो मन्त्र चला जाता था उसके फूट जाने की आशका रहती थी । अभयनन्दी ने काशिका के इस अर्थ को स्वीकार तो किया है, किन्तु गोण रीति से । उन्होने 'अपडक्षीणो देवदत्त ' उदाहरण को प्रधानता दी है । अर्थात् कोई देवदत्त नाम का व्यक्ति जिसने अपने पिता पितामह और पुत्र मे से किसी को न देखा हो । अर्थात् जो स्वयं अपने पिता पितामह की मृत्यु के बाद उत्पन्न हुआ हो और स्वयं अपने पुत्र जन्म के कुछ मास पहले गत हो गया हो। इसके अतिरिक्त गेंद को भी अपक्षीणा कहा है (येन वा कन्दुकेन द्वौ क्रीडत सोऽप्येवमुक्त ) ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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