SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य श्री कालुगणी व्यक्तित्व एवं कृतित्व ( ६ ) विद्यार्थी मुनि अध्ययन मे जब कम रुचि लेते, तब आचार्यवर उन्हें बार-बार पुरस्कृत कर प्रोत्साहित करते । कभी संस्कृत का श्लोक कठस्थ कराते और कभी मारवाडी का दोहा । उसका अर्थ बताते और उसका मनन करने की प्रेरणा देते । वे इतने वडे प्रेरणा-स्रोत थे कि उससे प्रेरणा की अनेक रश्मिया निकलती थी और मानस को आलोक से भर देती थी । स० १६८० की घटना है । आचार्यवर जयपुर मे चतुर्मासविता रहे थे। मुनि धनराजजी और मुनि चन्दनमलजी दोनो ससार पक्षीय भाई, जिन्हे दीक्षित किए कुछ ही समय हुआ था, एक दिन दोनो मे विवाद हो गया। मुनि चन्दनमलजी ने कहा -- मैं नही रटू गा । आप रटते जाइए, मैं सुन-सुन कर कठस्थ कर लू गा । मुनि धनराजजी ने कहा- मैं क्यो र ? सीखने की अपेक्षा तुझे है या मुझे है ? मुनि चन्दनमलजी ने कहा सिखाने की अपेक्षा आपको है या मुझे है ? इस विवाद को लेकर दोनो भाई आचार्यवर के पास पहुचे। उन्होने अपनी-अपनी बात आचार्यवर के सामने रखी । दोनो की बात सुनकर आचार्यवर ने उनके सिर पर हाथ रखकर कहा न तो इसे अपेक्षा है और न तुझे अपेक्षा है । अपेक्षा मुझे है, इसलिए जाओ ध्यानपूर्वक अध्ययन करो । विवाद समाप्त हो गया। सीखने और सिखाने का काम नए उत्साह से शुरू हो गया । २७ गंगापुर का चतुर्मास आचार्यवर उदयपुर चतुर्मास के बाद प्रस्थान कर गंगापुर पहुचे । तब तक वे आठ सौ मील की यात्रा कर चुके थे । उनके घुटनो मे दर्द रहता था । मत्री मुनि भगनलालजी को भी चलने मे कष्ट होता था । फिर भी उन्होने मालवा की यात्रा वडे उत्साह से की। कौन जानता था कि यह उनकी अन्तिम यात्रा है | कोन जानता था कि गंगापुर का चतुर्मास उनका अन्तिम चतुर्मास है । उनकी आयु षष्टिपूर्ति नही कर पाई थी । उनका शरीर बहुत शक्तिशाली था । घुटने के दर्द को छोड़कर बुढापा उन पर आक्रमण नही कर पाया था । कुछ ऐसी ही नियति बन गई कि मृत्यु ने असमय मे ही उन पर अपने डोरे डालने शुरू कर दिये । घटनाओ से निष्कर्ष निकलता है कि उन्होने उसका सहयोग किया। वे शरीर की उपेक्षा कर केवल मनोबल से जीवन-यात्रा चलाने लगे । गंगापुर मे चातुर्मासिक प्रवेश वडे उत्साह के साथ हुआ । आचार्यवर ने ५० मिनट तक पहला प्रचवन किया। प्रवचन के समय प्रतीत नही होता था कि उनका शरीर अस्वस्थ है । यदि हाथ पर वधी हुई पट्टी को न देखे तो कोई कह नही सकता कि आचार्यवर अस्वस्थ है । रगलालजी हिरण के भवन ( रग- भवन ) मे आचार्यवर का निवास हुआ । उस
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy