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________________ २६ : संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा जी देवचदजी ने आचार्यवर को अपने उपाश्रय मे आने के लिए निवेदन किया। आचार्यवर वहा पधारे। कुछ समय तक वार्तालाप होता रहा। आचार्यवर वापस जाने लगे, तव वहा उपस्थित सवेगी मुनि लावण्य विजयजी ने कहा 'कदागुरोकसो भवन्त ?' इसका सधि-विच्छेद करिए। मुनि सोहनलालजी (चूरू) ने तत्काल बताया कदा आगुः ओकसो भवन्तः अर्थात् आप घर से कब आए? यह उत्तर सुनकर मुनि जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने आचार्यवर की और नुडकर कहा आप सन्तो को खूब अच्छे ढग से तैयार कर रहे हैं। (४) उसी वर्ष (स० १९८७) आचार्यवर बीकानेर मे प्रवास कर रहे थे। वहा यतियो और सवेगी मुनियो का प्रवास भी होता रहता था। कभी-कभी परस्पर मिलने के अवसर भी आते थे। मिलन के एक अवसर पर एक सवेगी मुनि ने पूछ। 'कुमरी नव भूपस्य' इस पद मे सन्धि क्या है ? मुनि सोहनलालजी (चूरू) ने उसका उत्तर दिया कु अरीन् अव भूपस्य अर्थात् हे राजन! पृथ्वी की रक्षा और शत्रुओ का अन्त कर । यह सुन मुनि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होने आचार्य वर के नेतृत्व मे चल रहे विद्या-विकास के प्रति बहुत आदर व्यक्त किया। आचार्यवर विकास की प्रक्रिया के कुशल ज्ञाता थे। वे उसकी साधना और साधनो को भी जानते थे। उनका अनुभव था कि परीक्षा एक प्रोत्साहन है। प्रोत्साहन के और भी अनेक उपाय हैं। उन्होने अन्य उपायो को भी काम मे लिया। वे विद्यार्थी और अध्यापन कराने वाले मुनियो को समर्थन देते, उन्हें पुरस्कृत भी करते। ____ मुनि भीमराजजी उस युग के प्रबुद्ध चेता विद्वान् थे। उनका विद्यानुराग और गुणानुराग अनुकरणीय था। वे समय और धुन के बडे पक्के थे । वे साधुओ को आगमसून तथा सस्कृत ग्रन्थ पढाते थे। उनका सारा कार्य व समय दूसरो के लिए ही होता था। एक बार उन्होने कुछ विद्यार्थी साधुओ को अन्वय सहित 'सिन्दूर प्रकर' सिखाया। आचार्यवर को इसका पता चला। उन्होने विद्यार्थी मुनियो को बुलाकर उनसे सिन्दूर प्रकर के श्लोक सुने । स्पष्ट उच्चारण और मन्वय सहित श्लोको को सुनकर आचार्यवर बहत प्रसन्न हुए। उन्होने विद्यार्थी मुनियो और मुनि भीमराजजी--सभी को पुरस्कृत किया। परिष्ठापन एक सघीय व्यवस्था है। आचार्य अनुग्रह करते हैं, तब वे जमा होते हैं और प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर उनका उपयोग होता है। आचार्यवर ने विद्यार्थी मुनियो को पाच-पाच और मुनि भीमराजजी को इकावन परिष्ठापनो से पुरस्कृत किया।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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