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________________ ४४२ मस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की ५२५ की व्यर्थता अथवा सूचीदेशिका आदि हो सकते ह जो सर्वया मनोवैज्ञानिक है। वस्तूत माहित्यशास्त्रियों के लिए रस, भाव, छन्द, अलकार, रीति, गण आदि शब्द जैसे रोजमर्रा के ५०द हो जाते है और उनके पदे-पदे अर्थ-स्फोट की, उनके लिए कोई समस्या नही होती वैसे ही जैन वाङ्मय और जैन धर्म-दर्शन से परिचित व्यक्ति के लिए उपयुक्त शब्द नये नहीं लगते । किन्तु उस परम्परा से अनभिन व्यक्ति के लिए ये साधारण से शब्द भी विशिष्ट, पारिभाषिक एव महत्वपूर्ण प्रतीत होते है। इन दो का इस प्रसंग मे अपना इतिहास है जिसमे लोकरीति, विश्वास, शिप, धर्म, दर्शन तथा सस्कृति छिपी हुई है। कवि ने बडे कौशल से इस वैभव को शत्रो मे छिपाकर पाठको को समर्पित कर दिया है जिसकी पहचान उसे करनी है और अपने अतीत और अनागत से वर्तमान को जोडकर उसका तुलनात्मक आस्वाद लेने का अवसर प्राप्त करना है। दूसरा उदाहरण आदिपुराण के सोलहवे पर्व से लिया जा सकता है।१४४वे श्लोक से २६३वे श्लोक तथा पट्कम, वर्णाश्रमस्थिति तथा ग्रामगृहादिसस्त्याय से सम्बद्ध शब्दावली प्रयुक्त हुई है जिसके अनेक शब्दो का इन सूचियो मे समावेश नहीं हो पाया है । वर्णाश्रमस्थिति (१६।१४४),७६ स्वोच्चस्य ग्रह (१६११४६), वप्र (१६१६२), प्राकार (१६।१६२), परिखा (१६।१६२), गोपुर (१६१६२), अट्टालक (१६११६२), साराम (१६।१६४), तत्कर्तृ भोक्तृनियम (१६।१६८), योगक्षेमानु चिन्तन (१६।१६८), असि (१।१७६), मसि (१६।१७६), कृषि (१६।१७६), विद्या (१६।१७६), वाणिज्य (१६।१७६), शिल्प (१६।१७६), क्षत्रिय (१६।१८३), वणिज ((१६।१८३), शूद्र (१६।१८३), प्रजानाह्य (१६।१८६), वर्णसंकोणि (१६।२४८) तथा मात्स्यन्याय (१८४२५२) आदि अनेक पारिभाजिक द ऐसे है जो साधारण पाठक के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और व्याख्यासापेक्ष है । जैन मान्यता के सन्दर्भ मे 'वणाश्रम' की कुछ और मकल्पना है। 'व', 'प्राकार', 'परिखा', 'गोपुर' तथा 'अट्टालक' आदि शब्द पातुशास्त्र से सम्बद्ध है। 'क्षत्रिय', 'वणिक' तथा 'शूद्र' शब्द की आदिपुराणकार ने विशेष व्युत्पत्ति दी है । 'असि' का अर्थ, इस प्रस। मे, केवल तलवार न होकर शस्त्रकर्म है । 'मसि' का अर्थ केवल स्याही न होकर लेखन-कर्म है। किम व्यक्ति को कौनसा शस्त्र दिया जाता था और किससे कोनसा लेख अपेक्षित या इसका भी कुछ विचार अवश्य होता होगा। "शिल्प' का क्या अर्थ है और उसके कितने प्रकार हैं आदि प्रश्नो का उत्तर भी शिल्प' शब्द की प्रया विशेप मे युत्पत्तिपरक और प्रवृत्तिपरक व्याख्या करने से ही मिल सकता है। 'वर्णसंकोणि' की सकल्पना के पीछे कवि की क्या मनास्थिति और वारणा रही है तथा 'मास्यन्याय' शब्द का प्रचलन इम अर्थ मे कब से हो रहा है आदि प्रश्नो के इनर पाठन को चाहिए । वस्तुत ये शब्द अपनी यात्रा के दौरान पारिभाषिक
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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