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________________ आचार्य श्री कालूगणी व्यक्तित्व एवं कृतित्व . १५ नही लाते तो मेरा मन आपके प्रति घृणा से भरा ही रहता। मैं आपके सपर्क मे आया। मेरी शकाए निरस्त हो गई। मैंने अकारण ही आपके प्रति घृणा को पाला मुझे अपनी भूल का अनुभव हुआ। उसके प्रायश्चित्त स्वरूप यह साधु-शतक बना कर लाया हूँ । इसमें साधु की चर्या है। वह बहुत पवित्र है। उससे पापो का विनाश होता है। मैंने अपने मन मे पाली हुई घृणा का प्रायश्चित्त इन शब्दो मे किया है "अनागत को न जहाति सत्ये रतो जनोऽसत्यसमूहजालम् । न नीलिमा कस्य निवर्तते हि, ममीरिकायोगगतस्य सद्यः।"२ आचार्यवर | आपके चरणो मे आया हुआ कौन सत्यप्रेमी मनुष्य है, जो असत्य के जाल को नही छोड देता। ममीरा के स्पर्श से किस नीली वस्तु की नीलिमा दूर नहीं होती। आचार्यवर ने तीन घटा मे बनाई हुई उस कृति को देखा और देखा कि पंडितजी की ग्रहणशीलता कितनी प्रवल है। उन्होने एक बार के सपर्क मे साधूचर्या को समझा और उसे काव्य मे गुम्फित कर दिया। पडितजी के प्रति माचार्यवर के मन मे आकर्षण पैदा हो गया । उन्होने पडितजी मे वह सब पाया, जो यतिजी ने बताया था। पडितजी के मन मे अगाध श्रद्धा पैदा हुई। उन्होने आचार्यवर के चरणो मे अपने आपको समर्पित कर दिया। साधुशतक के एक श्लोक मे उसकी स्पष्ट ध्वनि "नेदानी त्वा त्यक्तुमामि साधो ! भक्ति मे त्व शीघ्रत सगृहाण । हस्ताभ्यामाबद्धवन्ध प्रकार , कि नाह स्या धारितानन्तसेवः ॥४ आचार्यवर | अब मैं आपको नहीं छोड़ सकता। आप मेरी भक्ति को स्वीकार करें। मैं हाथ जोडे हुए जीवन-पर्यन्त क्या आपकी सेवा मे नही रहूगा? अवश्य रहगा। आचार्यवर ने पडितजी के अनुरोध को मूक स्वीकृति दे दी। वे अपना आयुर्वेद का काम करते और जब कभी अवकाश होता आचार्यवर की सेवा मे आ जाते । साधुओ को सस्कृत-अध्ययन का विशेष अवसर हाथ लग गया। पहले प०धनश्यामदास जी पढाते थे। अब पडित रघुनन्दनजी और पढाने लगे। उनका ज्ञान बहुत विशद था। वे साधुओ को सारकोमुदी और विशाल शब्दानुशासन की अष्टाध्यायी पढाने लगे। स० १९७८ मे आचार्यवर लाडणू विराज रहे थे। उस
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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