SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ : -कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा उत्तर प्रदेश) का निवासी है। यहा आजीविका-अर्जन के लिए आया है। यदि वह अनुरन हो जाए तो अपने सब मे सस्कृत विद्या का अच्छा विकास हो सकता है। का स्वभाव भी निराला है। वह एकान्तप्रिय है। विज्ञापन से दूर रहता है। गंभीर और धीर है । बहुत कम वोलता है । लोगो से मिलने-जुलने मे भी सकोच करता है । अपने आप मे मस्त है । रघुनन्दन शर्मा उसका नाम है। यतिजी ने एक सस्कृतज्ञ विद्वान् का परिचय पाकर कालूगणी को हर्प हुआ। इस हपं के पीछे उनका गुणानुराग तो था ही, किन्तु अपनी अपेक्षा की पूर्ति की परिकल्पना भी थी। आचार्यवर ने कहा कभी योग मिला तो उस विद्वान् से बातचीत करेंगे। यतिजी ने पडित रघुनन्दनजी के सामने पूज्य कालूगणी का परिचय दिया। उन्होने कहा वे जैन आचार्य हैं, तेरापथ के नेता है। उनका बहुत बड़ा सघ है। वे बहुत -क्तिशाली है । स्वय विद्वान् है और विद्या के अनुरागी हैं। विद्वान् को बहुत महत्व देते हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम उनके पाम चलो, मैं तुम्हे उनसे परिचिन का दूगा। यतिजी की बात पडितजी सुन रहे थे । ५९, समझ नहीं पा रहे थे। वे यतिजी ५ मामान करते थे। इसलिए उनकी वात को अस्वीकार करना भी नहीं चाहते थे । और जन्त रण मे जैनाचार्य और उसमें भी तेरापंथ के आचार्य के पास वे जाना नहीं चाहते थे। उन्होने प्रकारान्तर मे इस बात को टालना चाहा । यतिजी अपनी बात ५. अदित रहे। उन्होने पडितजी से कहा मुझे लगता है कि तुम्हारे मन में जैन धर्म और तेरापय के प्रति कुछ भ्रान्तिया है। उन भ्रान्तियो को दूर करने का यह अच्छा अवसर है। इस अवसर का लाभ उठाना दूरदर्शिता ही होगी। पति जी ने यतिजी का अनुरोध स्वीकार कर लिया। वे दोनो आचार्यवर गोवा में उपस्थित हुए। प्रारभिता परिचय के बाद जैन धर्म और तेरापथ के बारे में चर्चा न की। पडितजी के प्रश्नो का समाधान किया गया । अब पडितजी दिन ही वरल गए । मातिाल में मनुष्य जो होता है, वह उनके निरस्त हो जाने पर नीता, दूसरा ही हो जाता है। उनके मन में प्रथम मप में ही minाहीचा । उन्हें अनुभव हुआ कि वे पूज्य कालू गणी और उनके ग या के लिए ही उत्तर प्रदेश ने राजस्थान मे आए हैं। गिरि आनायंप्रबर सीमा में स्थित हुए। उन्होने विनम्र ना को एा पालिपि दी। बाचायप्रवर ने पूछा 'पदित जी । {"T ENT रोनी ने TELI 'यनिजी मुरे, यहा
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy