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________________ ३१० सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्प >ग्य वेलि मे जान और ज्ञाति को क्रमश ग्यान' और ग्याति लिखा गया है । भ, घ>ह गभीर >मुहिर (वेली) मिहनी>सीहणी (वीर मतसई) मेघ> मेह दो महाप्राण एक साय आने पर प्रथम के अल्पप्राण होने के उदाहरण भी मिलते है भाभी>वाभी न>ण अपभ्र श को विशेष प्रवृत्ति थी जो राजस्थानी में भी मिलती है धनी>धणी खाना >खाणो પીના>પીળો अतएव ध्वनि परिवर्तन की दृष्टि से राजस्थानी ने प्राकृत अपभ्रश की परपरा को सुरक्षित रखा है। (ख) रूपवैज्ञानिक विवेचन रूपवजानिक विवेचन मे दीर्घ उक्तियों को उनके लघुतम सरचको मे विभक्त कर इन सरचको का कार्यकलन की दृष्टि से अध्ययन अपेक्षित होता है । रूपरचना मे सरलीकरण की प्रक्रिया आर्यभापाओ के मध्यकाल में ही प्रारंभ हो गई थी। प्राकृतो मे दो लिग और दो वचन रह गए थे। अपभ्र श मे भी दो वचन है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे भी दो वचन है एक वचन और वहुवचन । प्राकृतो मे सस्कृत के मन्धि नियम शिथिल हो गए थे। हनन मनाएं न रहने के कारण उनकी कारकावली भी सरल हो गई। करण, अपादान और मप्रदान-सवध के रूपो मे समानता पालि मे ही आ गई थी, कता और कर्म भी समरूप होने लगे। वैभक्तिक प्रत्ययो के स्थान पर स्वतन्त्र शब्द का प्रयोग प्राकृत मे ही होने लगा था, अपभ्र श मे भी यह प्रवृत्ति चलती रही । सर्वनामो मे जटिलता रही पर एकरूपता का आधार इनमे भी खोजा जा सकता है। प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे टेसीटोरी के अनुसार नियमत सभी सजाओ के रूपान्तर केवल करण, अपादान, अधिकरण और सम्पोवन मे ही होते है । अन्य कारको मे केवल स्वरान्त प्रातिपदिक ही होते है, व्यजनान्त प्रातिपदिक अपरिवतित रहते है', यद्यपि इसमे कुछ अपवाद मिलते हैं।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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