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________________ ३०६ सस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा त्रिणि दीह लगन वेली आडात (छन्द-६६) 'इ' का दीर्घरूप ई भी होता है नास्ति>प्राकृत मे णत्यि> नथी 'गुजराती' मे 'नथी' का प्रयोग सुरक्षित है, राजस्थानी में भी इसका प्रयोग हुआ है। सूर्यमल मिश्रण की वीरसतसई का निम्नलिखित दोहा द्रष्टव्य है नयी रजोगुण ज्या नरा वा पूरी न उफाण (दोहा-८) वेलि' मे अन्त्य 'इ'का लोप और 'य' के महाप्राण अश वाला ५ 'नह' पाया जाता है-- निसा पडी चालियो नह (छन्द-४६) प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे अपभ्रश का मध्यम 'इ' 'य' में परिवर्तित हुआ है वर> अप० वर>वयर परन्तु राजस्थानी मे 'इ' का यह रूप नही मिलता वरन् 'वर' ही प्रयुक्त हुआ है। हाँ वीरसतसड मे 'व' का 'व' अवश्य हो गया है । पर पर वैर बसाविया दिन दिन लूवं धाड' (दोहा-६६) अपभ्र श का 'अअ' प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी मे दो रूपो मे मिलता है (क) या तो 'अअ' सयुक्त होकर 'आ' हो जाते थे, अथवा (ख) दोनो 'अ' के वीच 'य' श्रुति आ जाती थी रत्न>अ५० रअण>रयण वचन > , वअण>वयण मदन > ,, मअण> भयण 'य' श्रुति वाला रूप भी अपभ्र श मे मिलता है-- त सुविणु भयण राएण (मयण पराजय चरिउ-१५) वेलि मे भी 'य' श्रुति युक्त प्रयोग मिलते हैं आयु रमणी तुटन्ति इम (छद-१८१) अपभ्र श के 'अअ' और 'अआ' मे सामान्यत सधि हो जाती है। राजस्थानी मे ये सधीकृत रूप ही मिलते है उष्णकालक > अपभ्र श उण्हमालउ>उहालउ (आदिनाय च०) यह प्रा प रा की स्थिति है। मारवाडी तथा अन्य पोलियो मे 'अउ' ओ मे परिवर्तित होकर 'उहालो' रूप मिलता है। अपभ्र श 'अउ' का नकोचन राजस्थानी मे 'ऊ' के रूप मे मिलता है अपभ्र श महु >
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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