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________________ प्राकृत एव अपभ्रश का आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ पर प्रभाव ३०१ हिन्दी मे पढता, पढती, पढा, पढी आदि क्रियाओ मे लिंगभेद मिलता है । मराठी मे भी मी जातो (मैं जाता हू) एव मी जाते (मैं जाती हू) तथा तू जातोस (तू जाता है) एव तू जातस (तू जाती है) क्रियाओ मे लिंगभेद द्रष्टव्य है। ६ सयुक्त कालरचना एवं संयुक्त क्रिया निर्माण --हिन्दी जैसी भाषाओ मे मूल धातुओ मे प्रत्यय लगाकर काल रचना की अपेक्षा वर्तमानकालिक कृदन्त एव भूतकालिक कृदन्त रूपो के साथ सहायक क्रियाओ को जोडकर विविध कालो की रचना की जाती है। इसी प्रकार क्रिया के विभिन्न अर्थों को व्यक्त करने के लिये मुख्य क्रिया रूप के साथ सहकारी क्रियाओ को संयुक्त किया जाता है। मध्यभारतीय आर्य भाषाकाल तक इस प्रकार की भापायी प्रवृत्ति परिलक्षित नही होती। इस कारण विद्वानो ने आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ मे सयुक्त काल रचना ए१ सयुक्त किया निर्माण को द्रविड भाषाओ के प्रभाव का सूचक माना है। इस सम्बन्ध मे मेरा यह अभिमत है कि हिन्दी ने इस परम्परा को परवर्ती अपभ्र श परम्परा से स्वीकार किया है। स युक्त काल एव सयुक्त क्रिया निर्माण की प्रवृत्ति 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' एव 'राउलवेल' की भाषा मे दिखायी देती है और इसी का विकास हिन्दी मे हुआ है। परवर्ती अपभ्रंश मे इस प्रकार की व्यवस्था भले ही द्रविड परिवार की भाषाओ के प्रभाव के कारण आयी हो। सदर्भ १ नाट्यशास्त्र १८।३४-३५ । २ नाट्यशास्त्र १८१३६-४० । ३ महाराष्ट्राश्रया भाषा प्रकृष्ट प्राकृत विदु ।-काव्यादर्श १।३४ । 8 Introduction to Karpurmanjarı, p 75 University of Calcutta (1948) ५ भारतीय आर्य भाषा और हिन्दी, पृ० १०३ (१९६३) तृतीय परिवद्धित सस्करण, दिल्ली ६ Mana Mohan Ghosh, Maharastri, a late phase of Sauraseni Journal of the Department of Letters of the Calcutta University, Vol XXXII, 1933 ७ गरीयान५ शब्दोपदे । एककस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्र शा । तद्यथा गौरित्यस्य सदस्य गावी गोणी गोता गोपातलिका इत्येवमादयो बहवोऽपभ्र शा (पातजल, महाभाष्य १।१।१)। ८ सापघ्र शप्रयोगा सकलमरुभुव०८वकु भादानकाच (काव्यमीमासा, अध्याय १०)। ६ सुराष्ट्रनवणाद्या ये पठन्त्यर्पितसौष्ठवम् ।। ___ अपघ्र शवदशानि ते संस्कृत पचास्यपि (काव्यमीमासा, अध्याय ७) १० । भूरिभेदो देशविशेषादपभ्र श (काव्यालकार २।१२) । ११ स चान्यरूपनागराभीर ग्राम्यत्व भेदेन निधोक्तस्तन्निरासार्थमुक्त भूरि भेद इति ।। १२ ब्राची लाट वैदर्भानुपनागर नागरौ वावरावन्त्यपाचालाकमालवककया । गोडीद वनपाश्चात्यपाड्यकौन्तल सहला। कलिंग्यप्राच्य कार्णाटिका पद्राविडगाजरा। आभारो
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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