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________________ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोश की परम्परा शिक्षा और जीवन-निर्माण I मुनि कालू मे विनय और विवेक का मणि- काचन योग था । उनकी बुद्धि भी प्रखर थी । वे चरित्र की अनुपालना मे बहुत जागरूक थे। इन विशेषताओं ने मधवागणी को शीघ्र ही आकर्षित कर लिया । उनकी शिक्षा मधवागणी के पास ही होती रही । मधवागणी संस्कृत के बहुश्रुत विद्वान् थे । उन्होने मुनि कालू को आगम ग्रथो का अध्ययन कराया, अपना लिपि-कौशल सिखाया। उनकी हस्तलिपि बहुत सुन्दर थी । वह सुन्दरता मुनि कालू ने भी हस्तगत कर ली । सारस्वत का पचसन्धि प्रकरण कठस्थ कराया, पर सस्कृत विद्या का पर्याप्त ज्ञान नहीं किया जा सका। मुनि कालू को दीक्षित हुए पाच वर्ष हो रहे थे कि मघवागणी का स्वर्गवास हो गया । मुनि कालू को मधवागणी की प्रतिकृति कहा जा सकता है । वही गति, वही चितन, वही रुचि और वही जीवन-क्रम | जीवन से जो सीखा जा सकता है, वह पुस्तको से नही सीखा जा सकता इस सिद्धात का जीवन्त भाष्य था मुनि कालू | उनके लिए मघवा एक व्यक्ति नही, आदर्श थे । जो मधवा मे नही था, वह उनके लिए मूल्यवान् नही था । इस पौद्गलिक जगत् में मधवा का जीवतशरीर नही रहा, पर कालू के मानस पटल पर वह सदा अमिट रहा । वे उसे कभी नही भुला सके । आचार्य बनने के बाद भी वे जब कभी मघवागणी की चर्चा करते, उनकी आखें प्रेमाश्रुपूरित हो जाती । देखने वालो के सामने मानो मधवा की प्रतिमा साकार हो उठती । मुनि कालू मधवा के प्रति समर्पित थे । समर्पण विनिमय के लिए नही होता। पर जहा समपर्ण होता है, वहा विनिमय अपने आप हो जाता है। मुनि कालू को मधव। का हृदय प्राप्त था, और पूर्ण विश्वास । एक स्थविर मुनि ने मधवागणी से निवेदन किया कालू प्रतिलेखन ठीक नही करता । मघवागणी ने कालू से विना पूछे ही कहा तुम से ज्यादा ठीक करता है । विश्वास उसका नाम है, जिसमे कोई छेद नही होता | मुनि कालू प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण आदि मघवागणी के पास बैठकर ही किया करते थे । इसलिए वे कालू की मुनि-चर्या से भली-भांति परिचित थे । कालू के प्रति उनका आत्मीय भाव दिन-प्रतिदिन बढ रहा था । एक दिन मुनि कालू मघवागणी के उपपात मे प्रतिलेखन कर रहे थे । सर्दी का मौसम था । ठिठुरा देने वाली सर्दी पड रही थी। मुनि कालू ने प्रतिलेखन के लिए ओढने के सारे वस्त्र एक साथ उतार लिए । उनका शरीर कापने लगा । मघवागणी ने तत्काल अपनी पछेवड़ी उन्हे ओढा दी । इस घटना को हमारी परम्परा मे विरल घटनाओ मे गिना जाता है ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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