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________________ शौरसेनी आगम साहित्य की भाषा का मूल्यांकन २८३ और दक्षिण के प्रान्तो मे समझी जाने वाली शौरसेनी भाषा मे ही अपने सिद्धान्तो का प्रतिपादन करना उचित समझा । (३) तीसरे प्रश्न का समाधान यह है कि जैसे प्राकृत की शाखा मागधी. अर्धमागधी, या महाराष्ट्री आदि प्राचीन बोलचाल की प्राकृतिक (स्वाभाविक ) बोलियो का संस्कार करके संस्कृत भाषा के रूप में तात्कालिक महर्पियो ने एक अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का निर्माण किया, और जो समान रूप से बिना किसी परिवर्तन के सारे भारतवर्ष मे समझी जाने लगी थी, उस सस्कृत भाषा के अति समीप या अत्यधिक साम्य होने के कारण परवर्ती दिगम्बर जैनाचार्यों ने शौरसेनी मे अपने ग्रन्थो की रचना करना अधिक उपयोगी और श्रेयस्कर समझा । यह बात इस नीचे दी जाने वाली तालिका से सहज मे ज्ञात हो सकेगी प्राकृत अइसय મંદિ अउभ अहर अहिगरण अधिगरण आमपिअ आकपिय आएस વેસ आउत्त इइ ईसा उदअ उड एअ ओइण्ण कई कडुअ कवलिअ शौरसेनी अदिसय અતિહિ गोआऊरी પલોય चक्क चलिअ યુવ अचिर कडुग कवलिद कोअड कोदड સેન गइ [માનુત્ત मागुत्त વિ इरिसा उदग पुड एग ओदिण्ण कदि સ્કેન વિ गोदावरी ઘોવ चदुक्क चलिद संस्कृत प्राकृत अतिशय अइरेअ अतिथि अईअ अयुत अकुरिअ अचिर સૈન્ अमअ आअव आमास अधिकरण आकम्पित આવેશ [ आयुक्त आगुप्त इति ફૈર્ષ્યા उदक पुट एक अवतीर्ण आवस्सअ શબ્દ [હિં ईइस उप्पायपुत्र कति एअत चतुष्क चलित कटुक વર્જિત कउह कोदण्ड करआ ओक्षण વેદ कायच તિ खाइर गोदावरी खोह ધૃતોવ ાળમ गोअ घाया શૌરસેની अदिरेग अदीद अकुरिद आरिय आगद आतब आगास आयास आयस्सय | अवस्सग इयाणि ફેનિસ उदु उप्पादपुव्व एगत બોળ ककुध करगा फादब खादिर खोभ गणग गोव घायग संस्कृत अतिरेक નતીત ઐતિ માર્ય आगत आताम्र आकाश आवश्यक इदानीम् ईदृक्, ईदृश ऋतु उत्पादपूर्व एकान्त સોવન फकुद करका (ओला) कादम्ब खादिर क्षोभ गणक ગોપ घातक
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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