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________________ २७० संस्कृत-प्राकृत व्याकरण और कोण की परम्परा लाइफ इन ऐंशियेंट इंडिया, स्टडीज़ इन वात्स्यायन 'म कामसूत्र, पृ० १३३ ) । निशीथ चूर्णी ( पीठिका, पृ० ५१ ) मे अपनी बुआ अथवा मोसी की कन्या के साथ विवाह किये जाने का उल्लेख है । पाइअसहमहण्णवो मे उक्त दोनो शब्दो को देशी बताया गया है । ६ भोयडा - (निशीथ भा० १२६ ) | जिसे लाट देश मे कुच्छ कहा जाता था, સે महाराष्ट्र . मे भोडा कहते थे | महाराष्ट्र की कन्याये इस वस्त्र को वचपन से पहनती थी और विवाह होने तक पहने रहती थी । उसके बाद गर्भवती होने पर सगे-मवधियो को भोज दिया जाता और उत्सव समाप्त होने के पश्चात् इम वस्त्र को निकाल दिया जाता । इस तरह का या इससे मिलता-जुलता रिवाज आज भी महाराष्ट्र में प्रचलित है या नहीं, इसकी खोज की जानी चाहिये । ३४२१४-२२, ७ कुत्तियावण ( वृ० भा० भगवतीसूत्र और नायाधम्मका मे भी ) का संस्कृत रूप कुत्रिकापण मानकर आचार्य मलयगिरि ने इस शब्द की वडी विचित्त व्याख्या प्रस्तुत की है कु इति पृथिव्या सना, तस्या त्रिक कुत्रिक स्वर्गमर्त्यपाताललक्षण तस्यापण हट्टु । पृथिवीतये यत् किमपि चेतनमचेतन वा द्रव्य सर्वस्यापि लोकस्य ग्रहणोपभोगदाम विद्यते तत् आपणे न नास्ति (देखिये आवश्यक टीका भी, पृ० ४१३ अ ) अर्थात् जहा स्वर्ग, मर्त्य और पाताल लोक में मनुष्य के उपभोग्य चेतन व अचेतन कोई भी वस्तु मिल सकती हो ( आजकल का 'जनरल स्टोर', पालि मे अन्तरापण ) | उज्जैनी, राजगृह और तोसलिनगर मे कुत्तियावण होने का उल्लेख मिलता है । कहते हैं कि भूत-प्रेत भी इन दुकानो पर सुलभ थे । भृगुच्छ का कोई वैश्य उज्जैनी की दुकान से एक भूत खरीद कर ले गया, जिसके द्वारा भूततडाग नामक तालाव बनाये जाने का उल्लेख है । तोसलि देश के किसी वणिक् ने ऋषिपाल नामक व्यतर લડીવા, નિને ઽસિતડા (ઋષિ તડાયા) તાનાવ ના નિર્માણ નિયા । ઽસિતડા का उल्लेख खारवेल के हाथी गुफा शिलालेख मे पाया जाता है । यदि कुत्तियावण के स्थान पर कोलियावण पाठ रक्खा जाय तो उसका अर्थ कोतुकिकशाला, यानी जहा कुतूहल पैदा करने वाली चीजे मिलती हो, किया जा सकता है । माहण (ब्राह्मण) । माहण शब्द की व्युत्पत्ति भी कुछ विचित्र ही लगती है । कहते हैं कि भरत के राज्य काल मे श्रावक धर्म उत्पन्न होने पर ब्राह्मणो की उत्पत्ति हुई । राजा भरत ने उन्हें जीवो को हनन न करने की प्रतिज्ञा વિલવાઈ (મા હળદ નીવે) તત્ર સે થે તોા માળ હે ખાને તો (વેલિયે વસુદેવ हिडि, १८४, २३, आचारांग चूर्णी, पृ० ५, आवश्यक चूर्णी, पृ० २१३ आदि) । इसी प्रकार द्विजाति शब्द से विज्जाइ ( = धिक् जाति) वना लिया गया मालूम देता है । जिनेश्वर मूरि कृत कथा कोप प्रकरण मे ब्राह्मण के लिये डोड्डु शब्द का प्रयोग हुआ है । कन्नड मे दोड्ड आचार्य का अर्थ शेखी बघारनेवाला होता है ।
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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