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________________ अर्धमागधी आगम साहित्य की विशिष्ट शब्दावलि २६६ विपाक सूत्र (६) मे उसे अलकारिक भी कहा है, अर्थात् जो स्नान आदि कराकर वस्त्राभूपण से अलकृत करे। मथुरा के राजा के चित्त नामक अलकारिक को सर्वन अन्त पुर तक मे आने-जाने की छूट थी। ज्ञाताधर्मकथा में (१३) अलकारिक सभा (बाल काटने के सलून') का उल्लेख है जहाँ वेतनभोगी अनेक नौकर-चाकर श्रमण, अनाथ, रुण और कगाल पुरुषो का अलकार-कर्म करते थे। २ गणिका का अर्थ है जो गणो के द्वारा मान्य हो । वसुदेव हिडि (१०३, १२२४) मे उल्लेख है . सामन्त राजाओ ने कुछ कन्याये चक्रवर्ती राजा भरत को उपहार मे दी। वे छन और चमरवारी सखियो के साथ राजा भरत की सेवासुश्रूपा में रहने लगी। अपनी रानी के कहने से भारत ने उन्हे गणो को प्रदान कर दी। भगवान बुद्ध को भोजन के लिये निमत्रित करने वाली सुप्रसिद्ध अवापाली वैशाली के गणराजाओ द्वारा भोग्य थी। किन्तु जान पडता है कि आगे चलकर गणिका का मूल अर्थ वदल गया। वात्स्यायन ने कामसूत्र मे गणिकाओ को वेश्याओ का एक उपभेद माना है । आचार्य हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन (विवेक, पृ० ४१८) मे अपनी कला की प्रगल्भता और धूर्तता मे कुशल स्त्री को गणिका कहा है (कलाप्रागल्भ्यचौाभ्या गणयति कलयति गणिका")। ३ वेस्सा (वृहत्कल्प भाष्य ६२५६) = द्वेष्या, लेकिन कालान्तर मे यह शब्द वेश्या के अर्थ मे रूढ हो गया। पाइअसहमहाण्णवो मे विशेषावश्यक का उद्धरण प्रस्तुत करते हुए वेस्सा का अर्थ पण्यागना या गणिका किया गया है। ४ छिन्नाला (हिन्दी मे छिनाल, कुलटा)। वृहत्कल्प भाष्य (२३१५) के टीकाकार ने छिन्नाला का अर्थ किया है छिन्ना नाम ये 5 आगमनाचपराध कारित्वेन छिन्न हस्तपाद । नासादय कृता , अर्थात् अगम्य गमन का अपराध करने के कारण जिसके हाथ, पैर और नासिका आदि को छिन्न कर दिया गया है। पाइअसहमहण्णवो मे foालिआ अथवा छिणाली शब्द को देशी बताया गया है। ५ मेहुणिम (वृ० भा० २८२२), मेहुणिआ (निशीथ भा० ५७७५) । मेहुणि अर्थात् भानजा (मराठी मे मेहुणा बहनोई या साले के अर्थ में प्रयुक्त) और मेहुणिमा अर्थात् मामा या बुआ की लडकी या साली (मराठी मे भी यही)। मेहुण का सस्कृत रूप मैथुन होता है, इसका तात्पर्य यह हुआ कि मेहुणिअ और मेहुणिआ का परस्पर विवाह सबध हो सकता था वे मैथुनगम्य थे। मामा की लडकी से विवाह करने के अनेक उदाहरण मिलते हैं। स्वय महावीर का विवाह उनकी भानजी से हुआ था। इस प्रकार का विवाह लाट देश और दक्षिणापय मे विहित तथा उत्तरापथ मे निषिद्ध समझा जाता था (आवश्यक चूर्णी २, पृ० ८१)। बोधायन मे इस प्रकार के विवाह का उल्लेख है। कुमारिल भट्ट ने दाक्षिणात्यो के मामा-भानजी के विवाह का उपहास किया है (एच० सी० चकलदार, मोशल
SR No.010482
Book TitleSanskrit Prakrit Jain Vyakaran aur Kosh ki Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmalmuni, Nathmalmuni, Others
PublisherKalugani Janma Shatabdi Samaroha Samiti Chapar
Publication Year1977
Total Pages599
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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